छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध लोकगीत गोंडवानी का परिप्रेक्ष्य और इतिहास
- छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध लोकगीत गोंडवानी का परिप्रेक्ष्य और इतिहास - February 17, 2021
फ़ोटो: गोंडवानी गायक बलराम व्याम (Sahapedia).
लोकगीत को आदिवासी समाज पुरखागीत या पुरखौती गीत कहता है. पुरखौती गीत की सबसे समृद्ध थाती आदिवासियों के ही पास है. उन्होंने प्रकृति के राग-रंग से इनका निर्माण किया है. यही कारण है कि इन गीतों में पवन का वेग, जल का तरंग और झिंगुरों की झनझनाहट, पक्षियों की चहचहाहट और धरती का श्रृंगार सुर-ताल तथा लय का रूप धर लेता है. ये रागनियॉ स्वयं में अमोघ भी हैं; सदियों से सदानीरा की तरह बहती चली आ रही हैं, हजारों साल की आत्म पुकार इन गीतों की पहचान है. इसीलिए ये परिवर्तनशील भी हैं; जो अतीत को नवीन करती चलती हैं. इन गीतों में उमंग के साथ-साथ इतिहास भी है. दुनियॉ के हर आदिवासी समुदाय में लोकगीतों की परंपरा पाई जाती है. इन गीतों की अपनी अलग-अलग शैलियॉ हैं. दुनिया के कुछ आदिवासी लोकगीत और लोकधुन इतने अनुठे हैं कि उनका अलग–अलग तरह से इस्तेमाल होता है. गोंडवानी भी ऐसी लोकगीत विधा है, जिसका निर्माण गोंडों ने किया है. गोंडी सृष्टि गीत में इस विधा के प्रमाण मौजूद हैं.
गोंडी दर्शन में पृथ्वी पर जीवन के विकास की कहानी कही गई है (गाई गई है) –
पसारू धारू पिरथी नरूं खंड धरतीरो
धरती मालिक संभू पिरथी मालिक पेनु रो.
अर्थात: सोलह परत सृष्टि और नौ खंड पृथ्वी जी.
धरती का मालिक संभु और सृष्टि का मालिक पेनु जी.
गोंडवानियों में माटी-पानी और पहाड़ का आवाह्न किया गया है. गीतों में बताया गया है कि माटी–पानी से बनी धरती की कहानी सात भूखंडों के टूटने-बिखरने की कहानी है. भूखंडों को महाद्वीप कहा गया है. संभु मादाव को सभी द्वीपों का स्वामी कहा गया है. भारत की माटी में गोंडी मिथकों और इतिहास का रचाव-बसाव दिखाई पड़ता है. गोंडी गणगाथाओं में जहॉ एक तरफ गणतंत्र का अंश दिखाई पड़ता है, वहीं नदियों और पहाड़ों के उत्स पर प्रकाश पड़ता है; जैसे अमूरकोट अर्थात अमरकंटक की उत्पत्ति. गोंडवानियों में इस पर्वत की उत्पत्ति के गीत गाए गए हैं. इतना ही नहीं, इन गणगाथा में गोंडवाना के लोगों को कोयावंशी कहा गया है और पारी कुपार लिंगो के जन्म की कथा कही गई है –
कोयामूरी दीपता सिरडी सिंगार.
पेण्डूर मट्टाता परसापेन गुडार. .
पोंगसी वासी मत्ता कोया पुंगार.
मुठवा पुटसी वातोर पहांदी कुपार. .
अर्थात: कोयामूरी द्वीप के सिरडी सिंगार द्वीप में पेंडुर पर्वत से बहने वाली परसापेन गंगा में एक कोया पुंगार बहता हुआ आया, जिसके कारण हे! पहांदी कुपार लिंगो तुम्हारा जन्म हुआ.
गोंडवानियों में कोयतुरों और पहाड़ नदी की गाथा गेय रूप में प्रस्तुत होता है. ऊपर की पंक्तियों में अमूरकोट या अमरकंटक की चर्चा हुई है. आइए देखें कि गोंडवानी में इस गाथा का सार रूप क्या है. गीतों में बताया गया है कि कोयावंशियों को गोंडीवेन कहा जाता है. गोंडों का जन्म उमूरकोट (अमरकंटक) में हुआ. अमरकंटक से ही नरमादा (नर्मदा) नदी निकली है. गोंडों का प्रारंभिक विस्तार भी इसी नदी के आसपास हुआ. गोंडवानी में नरमादा की धारा को ‘कोया पिलांग धारा’ कहा गया है, जिसका अर्थ है – कोया बच्चों का प्रवाह. इस नदी ने उन्हें अपना जल देकर सींचा और अमूरकोट ने बल दिया. इसीलिए अमूरकोट पहाड़ और नरमादा नदी, दोनों कोयतुरों के लिए आन-बान और शान का विषय हैं. वे इसके लिये जीते हैं-मरते हैं.
आदिम कोया दाऊ–दाई (मॉ-बाप) फरावेन सईलांगरा यहीं रहते थे. उन्हीं की कोक (कोख) से गोंडीवेनों का जन्म हुआ. यहीं से उनके बच्चे पॉचखंडों के गिरि, कंदरा और वन में फैले. सामुदायिक बोध के बाद गोंडीवेनों ने कोट और फिर बावन गंडराज्यों (गणराज्यों) को स्थापित किया. गंडराज्यों को ही गोंडवाना कहा गया (जिन्हें आज भी देखा जा सकता है). गोंडवानियों में सारी कथाएं गाई गई हैं. आज भी गोंडवाना के तमाम स्थल, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, तेलांगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और उड़ीसा में मौजूद हैं. आजादी के बाद जब गोंडवाना राज्य की मांग जोर पकड़ने लगी, तो तत्कालिक सरकार ने मांग को एक सीरे से अस्वीकार कर दिया. हजारों की शहादत के बहुत बाद में बावन गढ़ों में से छत्तीसगढ़ों के इलाकों को काटकर छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण किया गया.
गोंडवानियों से पता चलता है कि अमूरकोट और नरमादा की घाटियों में लिंगो दर्शन अर्थात गोंडी दर्शन का जन्म हुआ और गोंडवेनों को बारह सगावेनों और सात सौ पचास गोत्रों में बॉटा गया. एक गोत्र को एक पेंड़, एक जंतु और प्रकृति के किसी हिस्से को संरक्षित करना होता था. सरंक्षित होने वाले प्रकति के इन्हीं अंशों को टोटम कहा गया. कोयतुरों का एक गोत्र प्रकृति के तीन अंशों की रक्षा करता था. इस तरह गोंडीवेनों के सात सौ पचास गोत्रों द्वारा प्रकृति के बाइस सौ पचास जीवों को संरक्षण मिलता था. गोंडवानियों और गंडचिह्नों सात सौ पचास का खूब बखान मिलता है.
गोंडवानियॉ बनी बनाई होती हैं और कुछ लोग परंपराओं को पिरोते हुए नई गोंडविनियों को रचते भी हैं. नई गोंडवानी रचने वाले समूह को कपालिक (तुरंत कपाल की ताकत से रचने वाला) कहा जाता है. परंपरा से चली आती गोंडवानियों में कई बातें काम की होती हैं. उनमें मनु्ष्य के आदिम संघर्ष का बोध समाया रहता है. कई गोंडवानियों में गुफा या कोट से निकल कर नया समाज बनाने की गाथा गाई जाती है. प्रस्तुत है एक बानगी:
मट्टा कोट सूटे किसी सांगो वड़ा नावा पज्जा.
बने किसी नेल वीतीकाट कोदो कुटकी विज्जा. .
दाना येर पंडसिहची अपो चंगो मंदाकाट.
छव्वा पूतांग मिले मासी पाटा वारीकाट. . *3
अर्थात: पर्वतीय गुफा या कोट से निकलकर आजा मेरे साथी. आजा साथ–साथ जमीन जोतकर हम कोंदो सावां बोएंगे. उपजे अनाज को पानी में पकाकर बाल-बच्चों के साथ खाएंगे और खुशी के गीत गाएंगे. धरती,आकाश, और जीवों से प्रेम करेंगे. सरसरी नज़र से देखने पर तमाम गोंडवानियों में लोक सपनों का निर्वचन दिखाई पड़ता है. साथ रहने, साथ गाने, साथ–साथ परिश्रम करने तथा साथ–साथ सालवनों को पार करने के तमाम गीत गोंडवानी को प्रकृति के साहचर्य की वानी (वाणी) बनाते हैं. निश्चित रूप से गोंडवानियां लोकाक्षांओं और लोक सपनों का साकार रूप हैं. इतना ही नहीं गोंडवानियों में विनाश और विस्थापन की परिस्थितियों से ऊपजे दर्द को भी गाया गया है. एक उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है:
पीर्र वायो वड़ी वायो नरमदाल वच्ची हत्ता.
दाना बाहून पंडार ताड़ी कोरो आसी हत्ता. .
हिगा बाड़ी मंदाकाट अपो कर्रू सायले.
रेहूक नाटे दा दाकाट कमेय संगने कियाले. . *4
अर्थात: वर्षा नहीं हो रही. हवा नहीं चल रही. बादल की राह तकते–तकते नरमादा सूख गई है. अब अनाज कैसे उगेगा. चूल्हा कैसे जलेगा. भात कैसे पकेगा. बच्चों का पेट कैसे भरेगा. निर्जन जमीन हमें भगा रही है, हमें अब यहॉ से भागना पड़ेगा. धरती का कोप हमे खा जाएगा.
लोकगीतों और गणगाथाओं में इतिहास का तरल रूप संगर्भित रहता है. कुशल हॉथों में पड़कर तरल तथ्यों से ठोस ऐतिहासिक निष्कर्ष निकलते हैं. गोंडवानियों के अध्ययन से गोंडवाना के इतिहास को सामने लाया जा सकता है. कुछ इतिहासकारों ने गोंडवानियों और गणगाथाओं के अध्ययन के माध्यम से मिथकों के अर्थ को खोलने का प्रयास किया है. एडवर्ड स्यूस, और गोंडवाना एंड द पॉलिटिक्स ऑफ डीप पास्ट के लेखक प्रतीक चक्रवर्ती ऐसे ही मानवशास्त्री और इतिहासकार है. लंका की खोज पुस्तक में डॉ सांकलिया ने स्थापित किया है नर्मदा की घाटियों से आदिमानव के जैसे अवशेष प्राप्त हुए हैं, वैसे नर अवशेष पृथ्वी पर अन्यत्र से प्राप्त नहीं हुए. बस्तर से प्राप्त साक्ष्यों और लोक रीतियों (दशहरे में रावण पूजा) में संबंध जोड़ते हुए वह कहते हैं कि रावण बाहर का नहीं इसी भूमि का रहने वाला था. ऐसा माना गया है कि गोंडों का आंदि रावेन ही रावण है. यही कारण है गोंड अपने को रावण से जोड़कर देखते हैं. गोंडवानियों में सिंगारद्वीप (गोंडवाना क्षेत्र) के फरावेन सईलांगरा को एक बेटा – आंदी रावेन और एक बेटी – आंदी सुकमा को दर्शाया गया है. इस क्षेत्र में रावेण की पूजा का आधार भी ये गोंडवानियॉ और गणगाथाएं हैं.
गोंडवानी गायन परंपरा की जड़ें दूसरी दूसरी गायन परंपरा में भी विकसित हुईं, जैसे पंडवानी. आत्मसातीकरण की इस प्रक्रिया में गोंडवानी का क्षय ही हुआ. जहॉ गोंडवानी में आदिवासी परंपरा और संस्कृति को प्रस्तुत किया जाता है, वहीं पंडवानी में महाभारत की गौरवगाथा गाई जाती है. एक तरह से पंडवानी ने आदिवासी संस्कृति से पर्याप्त दूरी बनाकर अपना मुकाम कायम किया. जदुराम देवांगन, शांतिबाई चेलक, उषा बर्ले और तिजनबाई ने पंडवानी को ऊंचाई प्रदान किया.
प्रारंभ में गोंड, बैगा और परधान समुदाय के गायक आसपास के गांवों में गोंडवानी सुनाया करते थे. गोंडवानियों में गोंड राजाओं के पराक्रम का बखान गाया जाता था. मध्यकाल के अंतिम चरण में जैसे – जैसे गोंड राजाओं का नाश हुआ, वैसे – वैसे गोंडवानी में हिंदुत्व का प्रभाव बढ़ता गया. बढ़ते प्रभाव से इसमें महाभारत की कथाओं का प्रवेश हुआ. महाभारत के पांडवों की कथा की प्रधानता बढ़ती चली गईं, फलस्वरूप गोंडवानी की पहचान धीरे – धीरे पंडवानी के रूप में होने लगी. छत्तीसगढ़ के आदिवासी अपनी ही मूल गायन शैली से दूर होते गए.
गोंडों द्वारा गाई जाने वाली गोंडवानियां उनके इतिहास, मिथकों और प्रतिकों को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का माध्यम हैं. गोंडवेनों के गोटुलों में इन्हें गाया जाता था. जब से गोटुल कमजोर पड़ने लगे हैं, तब से गोंडवेनों के तमाम गीत स्वरूपों का उपयोग दूसरी संस्कृति के कथाओं को प्रस्तुत करने में किया जा रहा है. पंडवानी गायन ऐसा ही एक उदाहरण है. यह उसी तरह हो रहा है, जिस तरण गोंडवेनों की जनगण चित्रकलॉ और पैंटिंग के माध्यम से हिंदू देवी देवताओं की आकृतियॉ बनवाई जा रही हैं और उनमें जनगण शैली के रंग भरे जा रहे हैं. इसे एक तरह का अप्प्रोप्रिएशन या विनियोग माना जा सकता है. गोंडी चित्रकलॉ शैली के नाम पर इसका बड़ा सांस्कृतिक बाजार तैयार हो चुका है. पढ़े लिखे आदिवासियों के जागरूक हुए बिना यह सब थम नहीं पाएगा.
संदर्भ ग्रंथ सूची:
1. कंगाली चंद्रलेखा, गोंडवाना जीव जगत की उत्पत्ति, उत्थान, पतन और पुनरुत्थान संघर्ष
द्वितीय, प्रकाशन – उज्ज्वल सोसायटी, नागपुर संस्करण 2011 पृ. 4
2. कंगाली मोतीराम,पारी कुपार लिंगो गोंडी पुनेम दर्शन, उज्ज्वल सोसायटी, नागपुर चतुर्थ
संस्करण 2011 पृ. 23
3. कंगाली चंद्रलेखा, गोंडवाना जीव जगत की उत्पत्ति, उत्थान, पतन और पुनरुत्थान संघर्ष
द्वितीय, प्रकाशन – उज्ज्वल सोसायटी, नागपुर संस्करण 2011 पृ. 19
4. कंगाली चंद्रलेखा, गोंडवाना जीव जगत की उत्पत्ति, उत्थान, पतन और पुनरुत्थान संघर्ष
द्वितीय, प्रकाशन – उज्ज्वल सोसायटी, नागपुर संस्करण 2011 पृ. 19
https://bhartiyadiwasi.blogspot.com/2021/10/bhagoji-naik.html nice information.
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