मध्य प्रदेश में कोईतुर धार्मिक स्थल पर विवेकानंद का स्मृति भवन क्यों?
कोईतुर या गोंड समाज भारत के प्राचीनतम समुदायों में से एक है और इसकी अपनी स्वतंत्र संस्कृति और धर्म है. इसका हिंदूकरण करने और इन पर हिंदू धर्म थोपने की कोशिश हो रही है. गोंडी संस्कृति के केंद्र दरेकसा में विवेकानंद स्मृति स्थल बनाने की योजना इसी कोशिश का एक हिस्सा है. बता रही हैं उषाकिरण आत्राम :
गोंड संस्कृति का हिंदूकरण करने की एक और कोशिश
गोंड संस्कृति पर हिंदू धर्म व परंपराओं को थोपने के प्रयास किये जा रहे हैं. इसी क्रम में देवशीष राय जैसे कथित बुद्धिजीवी यह कह रहे हैं कि विवेकानंद ने 1877 में महाराष्ट्र के गोंडिया जिले के दरेकसा गांव में पहली भाव समाधि लगायी थी. जबकि 1877 में दरेकसा नामक गांव ही अस्तित्व में नहीं था.
सच तो यह है कि सतपूड़ा सालेटेकरी श्रृंखला [1] में सदियों से कोयावंशीय मानव समूह निवास करता आया है. यह पवित्र भूमि कोयतूर [2] गुरू लिंगो [3] और संगीतकार महायोगी हिरासुका की पावन धर्मभूमि है. इसीलिये पूरे भारत के मूलनिवासी यहां श्रद्धा से आते हैं. इस प्राचीन गोंडवाना भूमि पर कोयतूरों का ही वास रहा. यही लोग इस भूमि के मालिक रहे हैं. इन्हीं की इस इलाके पर सत्ता रही है. इसलिए यह कहना कि यह विवेकानंद का प्रथम भावसमाधि स्थल है और उनकी याद में स्मृति भवन बनाने की सोच गोंड संस्कृति में और गोंड सामाजिक व्यवस्था में जानबूझकर घुसपैठ करने की कोशिश है.
कितना हास्यास्पद है जब देवाशीष रॉय कहते हैं कि 1877 में विवेकानंद दरेकसा आए थे और उन्होंने पहली भावसमाधि दरेकसा में लगाई थी. लेकिन तब यहां पर बियावान जंगल था. जिसमें असंख्य जंगली श्वापद (हिंसक पशु) रहते थे. बड़ी-बड़ी पहाडियां, नदियां और असंख्य नाले थे. ना पुलिया थे, ना कोई रास्ता था, ऊंची-ऊंची पहाड़ियों के कारण यहां के लोगों का भी बाहर आना-जाना नहीं होता था. बहुत कठिनाइयों से ही लोग इन बाधाओं को पार करके यहां आ सकते थे. वह भी सिर्फ इस पहाड़ी में बसे गोंड लोग ही एक-दूसरे के पास आ-जा सकते थे. इसलिए इस बियावान जंगल को गोंडी भाषा में ‘चिडीचीप कमेंकान आलोट’ कहते हैं जिसका मतलब ‘मनुष्य विहीन शांतमय जगह’.
आज जिसे दरेकसा कहा जाता है वह पहले जम्मोकुड़ो था. यह प्राचीन स्थान कचारगड़ [4] से जुडा है. इसी जम्मोकुड़ो में जंगो मां के बच्चों का आश्रम था.
यह तो आधुनिक भारत का इतिहास भी कहता है कि वर्ष 1888 में बी.एन. आर नागपुर से राजनंदगांव तक रेल लाइन बनाने की योजना मंजूर हुई. 1920 में इस इलाके में पहली बार रेलगाड़ी का परिचालन शुरु हुआ. चलनी शुरू हुई. तब पहाड़ी को तोडकर बोगदा (सुरंग) बनाया गया. सुरंग को गोंडी भाषा में दर्रा-दर्रो कहते है. इसलिये स्थानीय काम करने वाले लोगों ने दर्रा नाम रखा. यहां जो काम करने वाले मजदूर झोपडी बनाकर रहते थे, उनको दर्रो वाले यानी दरेकसा कहा गया. तब जाकर दर्रा का गांव या दर्रा का टोला नाम सामने आया. गोंडी भाषा में यह नाम पड़ने के बाद ही दरेकसा गांव का जन्म हुआ. देवाशीष रॉय के अनुसार विवेकानंद तो 1877 में आए थे. सवाल है कि कैसे 141 साल के बाद अचानक पता चला कि यह विवेकानंद की पहली भाव समाधि स्थल है? यह आश्चर्य की बात है.
देवाशीष रॉय ने यह कह कर समाज में भ्रम पैदा किया है. उन्हें बताना चाहिए कि किस दस्तावेज में दरेकसा का नाम है, जिसमें इस तथ्य का जिक्र हो कि यह विवेकानंद की पहली भाव समाधि स्थल है.
एक दूसरा मुद्दा हाजरा फॉल [5] से संबंधित है. जिस कालखंड की बात देवशीष रॉय कह रहे हैं उस वक्त हाजरा फॉल नाम नहीं था. बोगदा (सुरंग) बनाने आये एक अंग्रेज इंजीनियर की मौत झरने के तेज प्रवाह में डूबने के कारण हो गयी. इस जगह को गोंडी भाषा में कुव्वाढास कहते हैं. क्या दरेकसा गांव ही नाम उनके किताबों में लिखा गया है? देवाशीष राय को यह बताना चाहिए कि लेखक नेे उस जगह का क्या नाम लिखा?
कचारगड़ ही नहीं, गोंदिया, भंडारा, चंद्रपुर, गढ़चिरौली, यवतमाल, नागपुर आदि तक गोंड बहुल इलाके थे. गोंड लोगों ने जो गांव बसाए थे, उनका नाम गोंडी भाषा में ही रखा गया. भूभाग, प्रदेश, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, पहाड़, डोंगर, नदी-नाले इन सबको वे लोग पवित्र स्थान मानते थे. उन पर श्रद्धा करते थे. इस सभी स्थलों को प्राचीन काल में ही गोंडी नाम दे दिया गया था. जैसे गोंदिया का प्राचीन नाम गोंडीनार था. काचीकोपा का प्राचीन नाम कचारगड़, जम्मोकुड़ो का जंबोकुड़ो, कुपारगड़ का कोपारगड़ और हाजरा फॉल का कुव्वाढ़ास था. इस तरह से कई गांवों के के नामों में परिवर्तन तब हुए, जब 1950 के बाद बाहर के लोग गोंडों के गांवों में आकर यहां के निवासी बन गए. गांव, नाम, भाषा, रीति-रिवाज, इतिहास, संस्कृति सब में बदलाव आया, लेकिन मूलनिवासी लोगों के गांव, स्थल, नदी, नाले और पहाड़ों को आज भी स्थानीय लोग गोंडी नाम से जानते हैं.
दरेकसा को विवेकानंद का पहली भाव समाधि स्थल कहने वाले देवाशीष राय को यह बताना चाहिए कि किस दस्तावेज में यह दर्ज है कि यहां विवेकानंद ने पहली भाव समाधि लगायी थी. उस दस्तावेज का नाम, पृष्ठ संख्या, प्रकाशन वर्ष, प्रकाशन स्थल और प्रकाशक भी बताना चाहिए.
नहीं तो आपको यह साफ-साफ कहना चाहिए कि यह आपका अंदाजा है या आपके मन की कल्पना है. बहरहाल,किसी को भी इस बात की इजाजत नहीं दी जा सकती है कि वह गोंडी संस्कृति और सभ्यता को विकृत करने की कोशिश करे.
विवेकानंद स्मृति स्थल बनाने और उनकी प्रतिमा स्थापित करने की इस पूरी योजना के संदर्भ में गोंडी संस्कृति के विशेषज्ञ ताराम कहते हैं कि यह पूरी योजना गोंडी धर्म और संस्कृति पर पराये हिंदू धर्म और संस्कृति को थोपना है. गोंडों पर हिंदुओं का उपनिवेश कायम करने का प्रयास है. यह उसी तरह है जैसे मस्जिद में जाकर रामायण या गीता पढ़ी जाए. यह पराये लोगों का हमारी करोड़ों वर्षों की संस्कृति और सभ्यता पर आक्रमण जैसा है.
[1] मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले में सतपुड़ा के पठार वाले इलाके में ऊंची पहाड़ियों को सालेटेकरी पहाड़ियों के नाम से जाना जाता है.
[2] सबसे प्राचीन आदिवासी
[3] गोंड संस्कृति में पारी कुपार लिंगो को सबसे पहला पुरखा माना जाता है. इन्हें सात गोत्रों का जनक भी कहा जाता है.
[4] उपलब्ध गोंड साहित्य व दस्तावेजों के मुताबिक गोंड समुदाय का आशिया खंड की सबसे बड़ी गुफाा जिसे कचारगड़ की गुफा भी कहा जाता है, से महत्वपूर्ण संबंध रहा है. कई लोक कथायें भी हैं. एक लोक कथा के अनुसार मादाव संभुशेक कोड़ापा ने कलिया दाई के 12 बच्चो को उस कचारगड़ की गुफा में बंद किया था. बाद में पारी कुपार लिंगो, हिरासुका लिंगो और जंगो रायताड़ दाई ने मिलकर,अपने अपने योगदान से उन 12 बच्चो को कचारगड़ की गुफा से मुक्त किया था.
[5] दरेकसा सुरंग के नज़दीक है हाजरा फॉल झरना. महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश राज्य के लिए मशहूर पर्यटन स्थल है.
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क/सिद्धार्थ/सूर्या बाली)
संदर्भ :
(1) कंगाली, एम. 2011,”पारी कुपार लिंगो गोंडी पूनेम दर्शन (हिंदी)”. चंद्रलेखा कंगाली, 48 उज्जवल सोसायटी नागपुर .
(2) गडदर्शन – डॉ. मोतीरावण कंगाली
यह लेख पहले फॉरवर्ड प्रेस में प्रकाशित हो चुका है.