झारखंड वनोपज (अभिवहन का विनियमन) नियमावली 2020: वन अधिकारों पर मंडराता खतरा

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17 जून 2020 को झारखंड मंत्रिमंडल की एक अहम बैठक हुई जिसमें झारखंड वनोपज (अभिवहन का विनियमन) नियमावली 2020 को मंजूरी दी गई (Annex 1). इस नियमावली के अनुसार किसी भी वनोपज को राज्य की सीमा में या उसके बाहर परिवहन के लिए निर्धारित सरकारी कार्यालय से जारी अनुज्ञा पत्र की आवश्यकता होगी. इस नियमावली में 3 अपवादों का जिक्र है, जिसमें मुख्यता से, ऐसे व्यक्तियों को अनुज्ञा पत्र की आवश्यकता नहीं होगी जो स्वयं के गांव मे उपजे वनोपज का परिवहन घरेलू कार्यों के लिए करते हैं. दूसरा अपवाद लघु वन उपज के लिए है जो वन से ‘स्थानीय’ बाजार या संग्रहण केंद्र या घरेलू उपयोग  हेतु लिए जा रहे हैं. 

(वन अधिकार कानून 2006 के भाग 2(झ) के अनुसार लघु वनोपज के ‘अंतर्गत पादप मूल के सभी गैर- इमारती वनोत्पाद हैं, जिनमें, बांस, झाड़ झंखाड़, ठूंठ,बैंत, तुसार, कोया, शहद, मोम, लाख, तेंदू या केंदू पत्ते, औषधीय पौधे और जड़ी बूटियां,मूल, कन्दऔर किसी प्रकार के उत्पाद सम्मिलित हैं.) 

यह नियमावली प्रमंडल वन पदाधिकारी को परिवहन अनुज्ञा पत्र जारी करने का प्राधिकार प्रदान करता है. इस व्यवस्थावादी अथवा सत्तावादी प्रक्रिया में कहीं ना कहीं वन में निवास कर रहे आदिवासी एवं अन्य परंपरागत वन निवासी वन पर अपने अधिकारों से दूर होते जा रहे हैं. इसी संदर्भ में वनोपज के परिवहन पर जो शुल्क निर्धारित किया गया है वह चिंताजनक है, क्योंकि इस निर्धारण की पूरी प्रक्रिया में कहीं भी आदिवासियों या ग्राम सभाओं को सम्मिलित नहीं किया गया. उदाहरण के तौर पर, इस नियमावली में जलावन की लकड़ी के परिवहन पर ₹ 25 प्रति घन मीटर का शुल्क लगाया गया है, परंतु  इस शुल्क का ग्राम सभा के इजाजत या उसके फैसले से कोई सरोकार नहीं है. 

इस नियमावली का प्रभाव ना केवल वन क्षेत्रों तक सीमित रहेगा, बल्कि सामान्य क्षेत्रों में भी लकड़ी के परिवहन पर इसका खासा असर देखने को मिलेगा.सामान्य क्षेत्र में इमारती लकड़ी के काटने एवं  परिवहन हेतु एक विस्तृत व्यवस्था [1] स्थापित की गई है. हालांकि इस व्यवस्था का तर्क पेड़ों की अवैध कटाई के रोकथाम के लिए है (जो सर्वोच्च न्यायालय के State of Bihar and other etc. etc. vs Ranchi Timber Traders Association, 1996 फैसले के अनुरूप है), यद्यपि यह ऐसी जटिल व्यवस्था पर प्रकाश डालता है जो कि आम जनता से कोसों दूर है.

वन अधिकार कानून, 2006

वर्ष 2006 में, जब भारत के राष्ट्रपति डॉक्टर ए. पी. जे. अब्दुल कलाम ने अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम – जो आम भाषा में वन अधिकार कानून के नाम से जाना जाता है – को सहमति दी, इससे एक ऐसी प्रक्रिया की शुरुआत हुई जिसका उद्देश्य सामाजिक हित में विकेंद्रीकरण एवं जटिल अफसरशाही व्यवस्था को आसान बनाना था. इस कानून के बनने से पहले वन में निवास कर रहे परिवारों एवं समुदायों को अतिक्रमणकर्ता के तौर पर देखा जाता था, जो अक्सर वन पदाधिकारियों के साये में अपना जीवन व्यतीत करते थे. वन अधिकार कानून आने के बाद वन निवासी (जिसमें अधिकांश आदिवासी हैं) अब न केवल व्यक्तिगत एवं सामुदायिक वन पट्टे के लिए दावे कर पाएंगे, बल्कि अब उन्हें  मौका है अफसरशाही व्यवस्था से निजात पाने का.

नियमावली में उल्लेखित अपवादों से एक और चिंताजनक मसला सामने आता है. मामला है सरकारी अथवा नीतिकारों की सोच का आदिवासियों के प्रति, विशेषकर वे आदिवासी जो वन क्षेत्र में निवास करते हैं. अपवादों के विवरण में ‘वनोपज का घरेलू उपयोग’ नियमित तौर पर जिक्र किया गया है. पर क्या आदिवासियों की जिंदगी महज घरेलू उपयोग या अपने पोषण तक सीमित है? क्या आदिवासी समाज बाजार के आर्थिक गतिविधियों में सम्मिलित नहीं हो सकता है? अपवादों में घरेलू उपयोग का जिक्र कहीं ना कहीं आदिवासियों के प्रति एक रूढ़िवादी सोच को दर्शाता है जिसमें आदिवासियों की परिकल्पना निर्वाह अर्थव्यवस्था में की गई है, जिसमें वह केवल अपने मूल जरूरतों तक सीमित है.

वन अधिकार कानून वन से संबंधित सारे अधिकारों की प्राप्ति हेतु प्रक्रिया का केंद्र ग्राम सभा को रखता है. इस कानून के भाग 6(1) में जिक्र है कि “ग्राम सभा को, ऐसे किसी व्यष्टिक या सामुदायिक वन्य अधिकारों या दोनों की प्रकृति और सीमा को अवधारित  करने के लिए प्रक्रिया आरंभ करने का प्राधिकार होगा…” इस कानून के तहत किसी भी व्यक्ति को वन क्षेत्र से बेदखल करना या उसे रहने की इजाजत देना अब सरकारी महकमे के विशिष्ट दायरे से बाहर, अब ग्राम सभा के दायरे में है. इसके अतिरिक्त, ग्राम सभा में निहित सामुदायिक अधिकार उसे वन उपज का संरक्षण, इस्तेमाल, प्रबंधन, विनियमन करने का अधिकार प्रदान करते हैं. देखा जाए तो वन अधिकार कानून ने एक संस्थागत ढांचा प्रदान किया है, जिसमें शक्ति या क्षमता सरकारी दफ्तरों से विकेंद्रित होकर आवाम के बीच ग्राम सभाओं में समाती है. हालांकि वन अधिकार कानून के इन क्रांतिकारी पहलुओं का  धरताल पर आना  अभी बाकी है, और यह कहना गलत नहीं होगा की अफसरशाही व्यवस्था इस कानून के अनुपालन के विरुद्ध कई बाधाएं ला रही हैं.

क्या झारखंड वनोपज नियमावली 2020 वन अधिकार कानून के विरुद्ध है?

सर्वप्रथम, झारखंड वनोपज नियमावली 2020 विभिन्न वनोपज के परिवहन संबंधित अनुज्ञा पत्र के नियम एवं शुल्क अदायगी तय करती है. इसके बिल्कुल विपरीत, 2012 में भारत सरकार द्वारा वन अधिकार कानून में लाए गए संशोधन के अंतर्गत (संशोधन नियम का भाग 5(i)) परिवहन-अनुज्ञा ग्राम सभा के अधिकारों के दायरे में आता है. सरकार का अनुज्ञा नियम एवं शुल्क निर्धारण करना ग्राम सभा के अधिकारों का हनन है. इसके अतिरिक्त, वन अधिकार कानून नियम पुस्तिका के दिशानिर्देश (pg. 39) में यह वर्णन है कि राज्य सरकार को लघु वन उपज पर परिवहन नियम से छूट देनी चाहिए. नियम पुस्तिका में दिए दिशानिर्देशों को गुजरात उच्च न्यायालय ने Action Research in Community Health & Development vs State of Gujarat 2011 के फैसले में उल्लेखित किया है. 

इस नियमावली की दूसरी चिंतनीय बात इसकी अनुज्ञा-पत्र-व्यवस्था है, जो वन क्षेत्रों में वनोपज के इस्तेमाल को नियंत्रित करती है. नियमावली में दिए अपवाद अप्रत्यक्ष तौर पर बताते हैं कि किन वन उपज के इस्तेमाल पर वन निवासियों को शुल्क अदायगी नहीं देनी होगी और उन्हें अनुज्ञा संबंधित परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ेगा. यह व्यवस्था वन अधिकार कानून के विरुद्ध है, जिसमें वन उपज के इस्तेमाल से संबंधित अधिकार ग्राम सभाओं एवं वन निवासियों में निहित है. वन अधिकार कानून भाग 3 (1)(ग) में उल्लेख है की वन निवासियों का अधिकार है- ‘गौण वन उत्पादों के, जिनका गांव की सीमा के भीतर या बाहर पारंपरिक रूप से संग्रह किया जाता रहा है स्वामित्व संग्रह करने के लिए पहुंच, उनका उपयोग और व्ययन’. इसी क्रम में, भाग 3(1)(छ) यह वर्णन है की ‘ऐसे किसी सामुदायिक वन संसाधन का संरक्षण, पुनरुज्जीवित या संरक्षित या प्रबंध करने का अधिकार, जिसकी वे सतत् उपयोग के लिए परंपरागत रूप से संरक्षा और संरक्षण कर रहे हैं’. वन अधिकार कानून के संशोधन नियम 2012 के भाग 2(iii) ने वन उपज पर अधिकारों की कड़ी में ‘व्यष्टिक या सामूहिक प्रसंस्करण, मूल्य परिवर्धन, ऐसे उत्पाद के उपयोग के लिए परिवहन के समुचित साधनों के माध्यम से वन क्षेत्र के भीतर और बाहर परिवहन या जीविका के लिए जनसमूह या उनकी सहकारिताओं, संगमों या परिसंघों द्वारा विक्रय’ को शामिल किया है. वन अधिकार कानून द्वारा प्रदत अधिकारों, जिनमें वनोपज के विभिन्न इस्तेमाल लिखित हैं, से यह बात स्पष्ट है की नियमावली के दायरे वन अधिकार को मापने में सक्षम नहीं है. इसी दिशा में वन अधिकार कानून नियम पुस्तिका (pg. 40) में वर्णित दिशानिर्देश जिक्र करता है कि सामाजिक वनोपज के इस्तेमाल में किसी भी प्रकार का प्रतिबंध (शिवाय पारंपरिक बंधनों के), जैसे की समय सीमा, वन अधिकार कानून के मूल के विरुद्ध होगी. 

नियमावली में उल्लेखित अपवादों से एक और चिंताजनक मसला सामने आता है. मामला है सरकारी अथवा नीतिकारों की सोच का आदिवासियों के प्रति, विशेषकर वे आदिवासी जो वन क्षेत्र में निवास करते हैं. अपवादों के विवरण में ‘वनोपज का घरेलू उपयोग’ नियमित तौर पर जिक्र किया गया है. पर क्या आदिवासियों की जिंदगी महज घरेलू उपयोग या अपने पोषण तक सीमित है? क्या आदिवासी समाज बाजार के आर्थिक गतिविधियों में सम्मिलित नहीं हो सकता है? अपवादों में घरेलू उपयोग का जिक्र कहीं ना कहीं आदिवासियों के प्रति एक रूढ़िवादी सोच को दर्शाता है जिसमें आदिवासियों की परिकल्पना निर्वाह अर्थव्यवस्था में की गई है, जिसमें वह केवल अपने मूल जरूरतों तक सीमित है.

इस नियमावली का सबसे विनाशकारी प्रभाव ग्रामसभा पर पड़ेगा. जो ग्राम सभा, वन अधिकार कानून के तहत, शक्ति/क्षमता की विकेंद्रीकरण एवं आवाम के सशक्तिकरण की राह पर आगे बढ़ रहा था, अब वही ग्राम सभा को अनुज्ञा पत्र के लिए सरकारी दफ्तर के चक्कर काटने पड़ेंगे. जिस ग्राम सभा को वन अधिकार कानून ने अपने महत्व का केंद्र बनाया था, झारखंड वनोपज नियमावली में उसी ग्राम सभा का कहीं जिक्र नहीं पाया जाता है.

इस विचार का खंडन दो स्तरों पर आवश्यक है. पहला, वन क्षेत्रों में रह रहे आदिवासी एवं अन्य परंपरागत वन निवासी, शहरों में बसे विभिन्न समाज की तरह, बाजार व्यवस्था से जुड़े हैं. बाजार की वस्तुएं अब केवल मूल जरूरतों को पूरा करने के लिए नहीं है, परंतु अपने जीवन यापन की बेहतरी के लिए भी है. इन जरूरतों को पूरा करने हेतु वनोपज को स्थानीय बाजार या उससे बाहर बेचने की आवश्यकता हो सकती है. वनोपज नियमावली, इस बदलती जीवनशैली एवं जरूरतों को दरकिनार कर, वन निवासियों को निर्वाह-रूपेण दृष्टिकोण से देखता है. वहीँ, वन अधिकार कानून अपने शुरुआती उल्लेख में इसी ‘जीविका तथा खाद्य सुरक्षा’ का जिक्र करता है.

दूसरा, आदिवासियों को ‘घरेलू उपयोग’ के साथ जोड़कर, यह नियमावली बाहरियों को वनोपज के मुख्य व्यवसायी एवं व्यापारी के रूप में देख रही है. इसके विपरीत, वन अधिकार कानून वन क्षेत्रों में रह रहे आदिवासियों एवं अन्य परंपरागत वन निवासियों द्वारा अपने गांव में स्थापित ग्राम सभाओं को वनोपज के संदर्भ में मुख्य कर्त्ता माना है. वन अधिकार कानून के संशोधन नियम 2012 के भाग 5(i) में ग्राम सभा की गतिविधियों का जिक्र है जैसे की ‘परिवहन परमिट, उत्पादन के विक्रय से आय का उपयोग या प्रबंध योजना का उपांतरण’. वन अधिकार कानून की नियम पुस्तिका के दिशानिर्देश (pg. 39) में इस बात का वर्णन है की वन अधिकार धारक या उनकी सहकारी संस्था/ संघ को लघु वन उपज बेचने की पूर्ण आजादी होनी चाहिए या उन्हें सामूहिक प्रसंस्करण, मूल्य परिवर्धन एवं विपणन (वन क्षेत्र  में या उससे बाहर) की आजादी होनी चाहिए. 

झारखंड वनोपज नियमावली की अपवाद सूची में उन लोगों को छूट दी गई है जो स्वयं के गांव मे उपजे वनोपज का परिवहन घरेलू कार्यों के लिए करते हैं. पर क्या गांव की सीमाएं किसी स्पष्ट रेखा से अंकित हैं? कई बार ग्रामीण अनजाने में दूसरे गांव की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं. ऐसी स्थिति में यह संभव है कि नई नियमावली के बूते वन अधिकारी उन्हें परेशान करें. वन अधिकार कानून भाग 3(1)(ग) इस अस्पष्टता  को ध्यान में रखते हुए  वनोपज पर अधिकार का विवरण ‘गांव की सीमा के भीतर या बाहर’ करता है. इस संदर्भ में झारखंड वनोपज नियमावली सीधे तौर पर वन अधिकार कानून का उल्लंघन करती है, और ऐसी प्रतिकूल संभावनाएं उत्पन्न करती हैं जिसमें लोग अपने गांव की सीमा लांघने से डरेंगे.

इस नियमावली का सबसे विनाशकारी प्रभाव ग्रामसभा पर पड़ेगा. जो ग्राम सभा, वन अधिकार कानून के तहत, शक्ति/क्षमता की विकेंद्रीकरण एवं आवाम के सशक्तिकरण की राह पर आगे बढ़ रहा था, अब उसी ग्राम सभा को अनुज्ञा पत्र के लिए सरकारी दफ्तर के चक्कर काटने पड़ेंगे. जिस ग्राम सभा को वन अधिकार कानून ने अपने महत्व का केंद्र बनाया था, झारखंड वनोपज नियमावली में उसी ग्राम सभा का कहीं जिक्र नहीं पाया जाता है. नियमावली में सारी विधि व्यवस्था सरकारी कार्यालय तक सीमित है. इसके विपरीत, वन अधिकार कानून 2006 को PESA कानून 1996  के साथ पढ़ने पर यह स्पष्ट होता है कि इन कानूनों का उद्देश्य जनहित में व्यवस्था का विकेंद्रीकरण है, और इस प्रयास में ग्राम सभा प्रमुख भूमिका निभाती है. वनोपज से संबंधित किसी भी विधि व्यवस्था जिसमें ग्राम सभा सम्मिलित ना हो, ग्राम सभा के अधिकारों का हनन है.

झारखंड वनोपज (अभिवहन का विनियमन) नियमावली 2020 एवं वन अधिकार कानून 2006 के विस्तृत पठन  में यह बात स्पष्ट होती है कि इन दोनों के बीच पूर्ण असंगतिहीनता है. इस संदर्भ में, यह बताना जरूरी है की ‘वन’ भारतीय संविधान के समवर्ती सूची में 17A में अंकित है; अतः इस पर कानून बनाने का अधिकार दोनों केंद्र और राज्य सरकार के पास है. पर ऐसी स्थिति में जिसमें केंद्र और राज्य सरकार के कानूनों में असंगतिहीनता है, इसमें केंद्रीय कानून को मान्यता दी  जाएगी, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय के M. Karunanidhi vs Union of India 1979 के फैसले में देखने को मिला था.

करीब 6 महीने पहले, जब हेमंत सोरेन सरकार सत्ता में आई, आदिवासियों में खासकर एक खुशी की लहर सी थी. हेमंत सोरेन सरकार के लिए वन अधिकार एक अहम चुनावी मुद्दा था, और आशाएं यह जताई जा रही थी कि  उनकी सरकार बनते ही वन अधिकार कानून का सख्ती से पालन होगा. हालांकि, इस नई नियमावली ने आदिवासियों एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं  के बीच एक चिंतनीय स्थिति उत्पन्न कर दी है. यह देखने की बात रहेगी कि क्या हेमंत सोरेन सरकार अपने चुनावी वादे को निभाते हुए, आदिवासी हित में इस नियमावली को रद्द करेगी.


[1] इस संदर्भ में अनुज्ञा आवेदन सर्वप्रथम वन प्रमंडल पदाधिकारी को जाती है, जो इसे अंचल अधिकारी के पास भेजते हैं. अंचल अधिकारी यह सत्यापित करते हैं कि उक्त पेड़ कीजमीन आवेदन कर्ता की है, जिसके पश्चात यह आवेदन वापस वन कार्यालय में आ जाती हैं, जहां क्षेत्रीय वन अधिकारी यह सत्यापित करते हैं कि उक्त पेड़ वन क्षेत्र में नहीं पड़ता है. इसके पश्चात पेड़ को पंजीकृत किया जाता है, एवं उसे काटने तथा परिवहन करने का अनुज्ञा पत्र जारी किया जाता है (नियमावली के अनुसार इस प्रक्रिया में 52 दिन लगेंगे).


Annex: 1

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Richard Toppo

Richard Toppo is a PhD research scholar from Jharkhand.

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