कोरोना वायरस महामारी असन्तुलित पूंजीवाद की देन है ना कि चमगादड़: दयामनी बरला
COVID -19 या कोरोनावायरस महामारी ने विश्व भर में संकट की स्थिति पैदा कर दी है, जिसमें अब तक तीन लाख के ऊपर जानें गयी हैं. इस बीच महामारी को लेकर कई परिप्रेक्ष्य दिए जा रहे हैं, इसमें आदिवासी समुदायों का परिप्रेक्ष्य जितना जरुरी है, उसे मीडिया और अनेक लेखों में सही महत्त्व नहीं दिया गया है. इस विषय में आदिवासी समुदायों के जीवन को नजदीकी से देखने की जरुरत है, जो हमें एक महत्वपूर्ण दर्शन देती है.
पहले आदिवासी समुदाय प्रकृति के बहुत निकट थे (अब भी निकट ही हैं) तब क्या उस समय उन जंगली जीव-जंन्तु, कीड़े मकोडों में वायरस नहीं था? निश्चित तौर पर था, लेकिन प्रकृति ओर पर्यावरण के बीच सामंजस्य था, मनुष्य और प्रकृति के बीच भी सामंजस्य था. यही प्रकृति और पर्यावरण का सामंजस्य हमें सभी महामारियों से लड़ने का सामर्थ्य देता था.
आज देश ओर समूचा विश्व विशेष संकट के दौर से गुजर रहा है, एक एैसा संकट जिसकी कल्पना कभी हम लोगों ने नहीं की होगी. देश विकास की जिन ऊंचाई पर पहुंचा है वहाँ पूरी दुनिया एक दूसरे से जुड़ी हुई है, एक ग्लोबल दुनिया, ग्लोबल बाजार, ग्लोबल पूँजी, ग्लोबल पूंजी बाजार, ग्लोबल वार्मिंग, ग्लोबल इकोनोमि, ग्लोबल पॉलिसी, अब ग्लोबल महामारी याने कोरोना वायरस या COVID-19. ग्लोबल पूँजी के बाजार में पूरी प्रकृति, पर्यावरण और मानव सभ्यता को मुनाफ़ा से तौला जा रहा है. ग्लोबल पूँजी बाजार में मुनाफ़ा के सामने प्रकृति, पर्यावरण और मानव जीवन कमजोर पड़ता जा रहा है. परिणाम सामने है–गर्मी में बरसात और बरसात में गर्मी, दुनिया में विकास की इतनी तेज रफ़्तार है कि प्रकृति ने अपनी गति और अपनी नीयती ही बदल दी है, यही नहीं प्रकृति ने अपनी दिशा और दशा भी बदल दी है, जहां पहले घनघोर, बीहड जंगल थे, हरियाली से ढँके पहाड़ थे, इठलाती कल कल करती नदियां बहती थीं; अगहन महिना में दूर-दूर तक खेतों में धान की बालियां झुमती थी, गेंहू, मटर, ज्वार, बजरा, सभी तरह के पत्तेदार साग-सब्जियों से किसानों के खेत हरियाली से पटा होता था. उस समय जंगल के बाघ, भालू, बंदर, हाथी, सियार, भेड़ियों आदि के साथ प्रकृतिमूलक आदिवासी मूलवासी समुदाय का एक दोस्ताना रिश्ता था, और कुछ हद तक अभी भी है.
जंगल के बीच, पहाड़ की ढ़लानों में, नदी के किनारे, खेत-डाँड़ के बीच रचे-बसे गांव को इन जंगली जानवरों से खतरा नहीं था. प्रकृति और पर्यावरण के साथ रचे-बसे आदिवासी किसानों की जीवनशैली में जंगली जानवर जैसे बाघ, भालू, बंदर, लंगूर यहां तक कि सांप, बिच्छुओं के साथ खास संबंध था. समाज के लोग जानते थे कि इनका निवास स्थान कहां है, उनका आने-जाने का रास्ता किधर है, उनके निकलने, आने-जाने का समय भी जानते थे. उसी हिसाब से लोग अपनी गतिविधयां भी तय करते थे. लोग जानते थे कि यदि आप उन्हें छेडेंगें नही तो वह आप को कोई हानि नहीं पहुंचायगा. यही कारण है कि आज भी दुनिया भर में आदिवासी-मूलवासी समाज जंगलों में ही वास करता है और वहीं सुरक्षित भी है.
जहां आदिवासी-मूलवासी समुदाय रहता है ये जानवर हमेशा गांवों के किनारे खेतों खलिहान में चरने आते थे, गांव के मिट्टी के घरों के दिवाल, खपरैले बांस–बली से छरे, खपरेले घरों के छतों के बांस के फोंफी से, छोटे भादूल (चमगादड़) शाम होते फूर फूर उड़ कर निकलते और तेजी से उड़ते हुए मच्छड़ों साथ ही उड़ते छोटे छोटे कीड़ों का शिकार करता है. घरों में चूहा, मुसा, चुयिटा, उछल-कूद करते रहते. मिटटी की दिवालों पर चिपक कर छिपकली अपने शिकार को निहारते रहती और छोटे छोटे उड़ते कीड़े-मकड़ो को अपनी जीभ से लपेट लेती.
प्रकृतिमूलक आदिवासी मूलवासी समुदाय के पूर्वजों ने प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए गांव बसाने का काम किया, जिनका परंपरागत तकनीक था. यह गांव पेड़ पौधों के झुरमुट के बीच बसा होता है. अधिकांश आदिवासी गांव में इमली के पेड़ अधिकांश मिलता है. गांव का अखड़ा के पास दो-तीन इमली पेड़ होता ही है, जो पूरी तरह छायादार होता है. जहां आदिवासी हर पर्व त्योहार का पूजा रस्म अदा करते है. यहीं पर गांव के महिला, युवा वर्ग एवं बच्चा बुजूर्ग सामूहिक रूप से नाचते गाते है. पहले कोई गांव का बैठक होता था तो, लोग अखड़ा में ही बैठते थे. कई गांवों के इमली पेड़ में भादुल (चमगादड़) परमानेंट पचास-साठ वर्षों से रहते आ रहे हैं. इमली पेड़ के सभी टहनीयों पर, पैर के नखून से लटके रहते है. दिन को नीचे सिर करके अपने मुलायम नायलुन कपड़ानुमा पंख से अपने शरीर को ढंके टहनी पर लटके सोते रहते हैं. शाम होेते ही भोजन की खोज में पेड़ से उड़ कर दूर चले जाते हैं, फिर अगले सुबह भोर होने के पहले ही वापस पेड़ पर आ जाते है, सुबह चार-पांच बजते जोर से चेंचेंचेचेंचें की सामूहिक आवाज देर तक करते हैं. कभी कभी दिन को भी चेंचेंचेंचेंचें हल्ला करते हैं, गांव वाले भादूलों को गांव की शोभा और शुभ मानते हैं यही करण है गांव वाले मारने नहीं देते हैं.
भादूल फलाहारी होते हैं. फलों और पत्तों का रस चूसते हैं. फलों की खोज में दूर दूर चले जाते हैं, आम, बेर, महुंआ, डोरो, कुसुम, बर, डूमर, पिपल, सिमिज हेसआ, केंउद, अमरूद, पपिता आदि खाते हैं. जब फल नहीं मिलता–तब आम पत्ता, जितिया पत्ता, आदि पेड़ों के पत्तों को खाते और उसका रस पीते हैं. ये रात के समय तालाब से या झील आदि से पानी पीते हैं. जब भादुल किसानों के फलों को ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं तो गांव वाले उसे जाल डाल कर रोकने की कोशिश करते हैं. पेड़ के नज़दीक पतले धागे के बने जाल या उंचे उंचे बांस गाड़ कर जाल लगा देते हैं, जाल में फँस जाने पर भादुल को लोग मार कर खाते हैं. कोई पका फल पेड़ से गिरा हुआ है और वह कुतरा हुआ है तो यह अनुमान लगा लेते हैं कि इसको भादुल या गिलहरी ने खाया है. उस कुतरा फल को लोग प्यार से खा लेते हैं, और कहते हैं–चिड़िया, भादुल या गिलहरी ने खाया है, कुतरा फल बहुत मीठा लगता है. आज भी गांव के लोग ऐसा मानते और करते हैं.
गांव में मूसा (चूहा) तीन तरह का होता है, एक घर में रहने वाला, दूसरा टांड या झाडी में रहने वाला और तीसरा खेत में रहने वाला. मूसा अनाज, फल आदि खाते हैं, ये सड़ा-गला, मेला आदि भी खाते है. घर में रहने वाला मूसा, किसानों के घरों में आनाज आदि चोरी कर खाते हैं. खेत -टांड में रहने वाला मूसा खेत से ही धान, मंडुवा, उरद, मकाई, गंगाई, ज्वार, बजरा आदि फसलों की बालियां काट कर अपने बिल में घुसा लेते हैं. इन तीनों तरह के मूसा को जो खाना पंसद करते हैं, मार कर हमेशा खाते हैं.
सियार प्राय: सभी जगहों में रहते हैं, चाहे वह जंगल इलाका हो या फिर जंगल विहीन इलाका. वे शाम होते ही अपने गुफा से बाहर निकल कर आवाज़ लगाते हैं और रात के अंधेरे में भी आहार खोजने निकलते हैं और दिन को भी मौका देखकर चरते भेड़-बकरी, मुर्गी, चेंगना उठा कर भाग जाते हें. जब सियार बकरी को भगा लेता है, बकरी को मार खाता है. यदि सियार शिकार किये बकरी को खा कर खत्म नहीं कर पाता है ओैर यदि किसी व्यक्ति को मरा बकरी मिल जाता है, तो उसको लोग पका कर खा लेते हैं.
आदिवासी गांव पेड़ों के झुण्ड के बीच बसा होता है, गांव के भीतर, बाहर, चारों तरफ सैकड़ों तरह के पेड़ होते हैं. बांस बखोड, आम, लीची, इमली, कटहल, अमरूद, कोयनार, कचनार, बेर, बेल, गम्हर, डाहू, पपीता, गोलाईची, मुनगा, मुनगी, पुटकल, करंज, सरला, मठा, सरीफा आदि पेड़ भरे मिलेगें. इन पेड़ो में उल्लू, बगुला, मैना, गेंरवां, पंडकी, फिकोड़, तोता, कटफोडवा, हुदहुद सभी चिड़िया निवास करते हें. आदिवासी समाज इन जानवरों, चिड़ियों के बोलने, रोने की लय-भाषा को संवाद मानते हैं. उल्लू अमूमन रोता है तो खेररर-खेररर की आवाज़ करता है. लेकिन जब वह कोगज-कोगज की आवाज करता है, तो गांव के लोग इसे “गोज पेचा” या उल्लू का रोना कहते हैं और मानते हैं कि कहीं किसी के साथ बुरा हो सकता है. सियार रोता है तो हुंआए हुंआए आवाज निकालता है. लेकिन जब वह फेयोयो-फेयोयो आवाज़ निकालता है, तो गांव के लोग कहते हैं “फेकाइर” रो रहा है और इस रोने को गांव के लिए बुरी खबर माना जाता है.
पहले जंगल इलाके में घनघोर जंगल था, जंगल में हर तरह के पेड़ पौधे, जंगली घांस, फूल-पत्ते मिलते थे, जो जंगली जानवरों के निवास स्थल के साथ-साथ उन्हें भोजन भी उपलब्ध कराता था. जंगली केला, बरगद, पीपल भी मिलता था. उस समय बारिश भी बहुत होती थी, पहाड़ी इलाक़ा हो या जंगली इलाक़ा, पहले गांव में हाथी नहीं आते थे. गांव की फसल भी आज की तुलना में कम ही नष्ट करते थे. पहाड़ी और जंगली इलाके में डाँड़ के गंगाई, मकाइ बोदी, गोंदली, बादाम, शकरकंदा को भालू, बंदर, लंगूर और हिरण खाते थे; फसल की रक्षा गांव वाले करते थे, साथ ही इनका शिकार भी करते थे. जानवरों के नहाने, पीने के लिए झील, झरना, नदी, नाला में पानी उपलब्ध होता था.
जंगल-पहाड़ों के बीच, नदी, झील, झरनों की तराईयों में प्रकृति के साथ जीने वाले आदिवासी समुदाय की जिंदगी खेती-बारी, जंगली फूल, पत्ता, फल, आम, इमली सहित तमाम तरह के फूल-फल पर ही टिकी हुई थी और आज भी इसी पर निर्भर है. भोजन के रूप में जंगल के पत्ते, फूल-फलों का उपयोग करते हैं और जब बीमार होते हैं तो भी इसे ही दवा-दारू के रूप में उपयोग करते हैं. केवल सेवन विधि अलग होती है. ये अजीब सी बात है कि जिसको जंगली जानवर खाते-पीते हैं, उसे मनुष्य भी उपयोग करते थे और करते हैं. तब क्या आज की तरह उसमें वायरस नहीे होता था?
आज सब बदल चुका है, हरियाली ओढे जंगल पहाड़ अब कोयला माइंस, अबरख माइंस, यूरेनियम माइंस, बोक्साइड माइंस, अयरआरे माइंस में तबदील हो गए हैं. जंगल-झाड़, हरियाली खेत डाँड़ बड़े-बड़े डैम के पानी में जलमग्न हो गयी, हजारों किस्म के अनाज पैदा करनी वाली धरती कलकारखानों, उद्योंगो, चकाचौंध वाले शहरों और महानगरों में तब्दील हो गयी. तालाब, नदी, झील, झरने गायब हो गये, पेड़ काट कर जंगल खत्म कर दिए गये. विकास की सडकें जंगलों को उजाडते, पहाड़ों को भेदते गांव-गांव तक पहुंची. अब गांव गांव से प्रकृतिक संसाधनों को इसी सड़क से ढोया जा रहा है. जंगल मरूभूमि में बदल गयी है. नदी, झील, झरने मर गये हैं. अब जंगल में मोर भी नहीं नाचता. अब बारिश भी समय से नहीं होती, कभी अति वृष्टि तो कभी अनावृष्टि, गर्मी में 45 डिग्री तापमान, तो बरसात में भी गर्मी पचास डिग्री तापमान. प्रकृति की बदली गति और नीति-नीयती को हम विकसित शब्दों में शायद ग्लोबल वार्मिंग कहते हैं.
ग्लोबल वार्मिंग शब्द को अविकसित गांव के लोग नहीं समझ सकते हैं. हां पहले जनवरी-फरवरी माह आते लोग समझ जाते थे कि पेड़-पौधों के पत्ते झड़ने लगते हैं. जंगल के सभी पेड़ पुराने पत्तों को फरवरी-मार्चं के अंत तक गिरा देते हैं. सिर्फं खजूर के पेड़ से पत्ते नहीं झड़ते हैं. जंगल-झाड का दृष्य बदलने लगता है. नये कोंपले निकलते, लाल, हरा, बैगनी, नीला, दुधिया सफेद, हल्का भूरा, हल्का पीला, परपल कोंपले और फूल-पत्ते मन को अनायास ही अपने कब्जे में कर लेते हैं. पेड़ से पत्ते झडने लगते तो यह संकेत था की यह पतझड ऋतु है. इसके बाद बसंत आयेगा, बंसंत के बाद गर्मी और गर्मी के बाद बरसात और जाड़ा या ठंडी. प्रकृति के बदलते दृश्य को देख समझ जाते थे कि अब बसंत ऋतु आ गया है.
आम के पेड़ में दुधिया सफेद मंजरी, हल्का भूरा मंजरियों में मंड़राते मधुमक्खी, भौरें, आम के पत्तों में मंजरी के रसों में नहाया व चमकती, चिपचिपाती पत्ते जिंदगी में हर पल जीवन रस का एहसास कराता है. जंगल में कुसुम, जामुन पेड़ में लाल नये कोमल पत्ते, पलास के लाल फूल, महुआ और चार के पेड़ों में हल्के भूरे कोमल पत्ते, ढेलकंटा की झाड़ी में सफेद दुधिया फूल, साल के पेड़ो में हल्के लाल कोमल पत्तों की चादर से ढंका झारखंड का जंगल-पहाड़ बसंत के आगमन का अहसास कराते है. प्रकृति के इस नव जीवन के साथ ही आदिवासी समाज प्रकृतिक त्योहार सरहूल की तैयारी करते हैं, गांव-गांव में बा परब, खदी, सरहूल की तैयारी में हर रात अखड़ा में मंदर की थाप के साथ जादूर नाच-गीत से गांव सरहूलमय हो जाता है. खूंटी से पूरव मुंण्डा गांवों में लोग जादूर नाच और गीत ढोलक की थाप पर थिरकते हैं.
सच्चाइ यही है की पहले हम लोग प्रकृति के ज्यादा निकट थे, पर्यावरण के साथ हमारा गहरा संबंध था. प्रकृति से हम उतना ही लेते थे जितना हमे जरूरत थी, और हम जितना प्रकृति से लिये, प्रकृति को उससे दुगना देने की कोशिश भी करते थे. लेकिन आज केवल हम उनसे ले रहे हैं; प्रकृति को कुछ भी नहीं दे रहे हैं, प्रकृति और पर्यावरण के साथ हम मनुष्यों का यह बड़ा अपराध है.
जैसे-जैसे देश का जीएसटी बढ़ता जा रहा है, देश की अर्थव्यवस्था मजबूत करने के लिए आजादी के बाद बने भारतीय संविधान में मौजूद कानून को तोड़ कर दुनिया के बाजार के हिसाब से कानून में संशोधन किया जा रहा है. अब देश के किसानों के लिए भारतीय संविधान में जो प्रावधान थे, उनको अंतराष्ट्रीय कानूनों के साथ जोड़ा जा रहा है. अब यह भारतीय कृषि नीति नहीं, राष्ट्रीय कृषि नीति कहलाएगी. अब सभी कानून अंतराष्ट्रीय बाजार के हिसाब से होंगे; शिक्षा नीति और स्वास्थ्य नीति सहित जिंदगी की तमाम सेवाएं सरकार द्वारा नहीं बल्कि निजी उद्योग घरानों के हाथों होंगी. निजी उद्योग घरानों का पहला लक्ष्य – मुनाफा कमाना है. मुनाफ़ा कमाने की होड़ में रोज़गार और सामाजिक संबंध के बीच कोई मानवीयता का संबंध नहीं रहा है, वहीं उत्पादन और गुणवता बढ़ाने के नाम पर मशीनी करण के इस्तेमाल को प्राथमिकता दी जा रही है.
विकास के रास्ते आज हम यहां पहुंच गये हैं कि जंगली जानवरों के रहने के लिए जंगल सुरक्षित नहीं है, न ही जंगल में जानवरों के लिए भोजन, पानी मिल रहा है. हाथी को मूलतःपीपल के पत्ते, उसकी छाल, जंगली घांस, बरगद के पत्ते, उसकी छाल, केले के पत्ते, केला आदि पसंद है. जंगल में अब न तो बरगद रह गए हैं, न पीपल, न केला. अब बरगद, पीपल और केला आदि है तो गांव में ही बचे हैं. जानवरों के लिए चरने के लिए भी जंगल नहीं बचा, यही कारण है कि अब सभी जंगली जानवर गांव पहुंच जा रहे हैं. हाथी का भोजन अब गांव में किसान के फसल, किसानों के घरों का अनाज, कटहल है. अब हाथी गांव गांव पहुँचकर हडिया पी रहा है और शराब के लिए तैयार महुंआ से अपना पेट भरने को मजबूर है. अब यह गलती किसकी है?
गांव में पहले हाथी अपने से नहीं आता था, जब महावत हाथी लेकर आता था तो लोग हाथी देखने के लिए दौड़ पड़ते थे. लेकिन अब बिना महावत के दस-बारह की संख्या में हाथी गांव आकर किसानों के घर का अनाज खा जा रहे हैं, कटहल, केला, खेत का फसल रौंद रहे हैं. लोगों को कुचल रहे हैं. लोग कहते हैं कि आज जो विश्व में महामारी आयी है – किसी वायरस से आयी है, कोई कहता है कि चमगादड़ से आयी है, वही वायरस दूसरे मनुष्य में फैलता जा रहा है. यह अचंभा सा लगता है कि चमगादड के वायरस से दुनिया परेशान है, डॉक्टर और ज्ञान-विज्ञान की समझ से परे यह वायरस, गांव वालों की समझ से भी परे है कि चमगादड के कारण ऐसा कैसे हो गया.
आज भी झारखंड के कई गांव के इमली के पेड़ पर चमगादड सैकड़ों की संख्या में लटके हुए हैं. कई गांव में इमली पेड़ पर, कई गांव में आम पेड़ में अभी भी हैं. गांव वालों का मानना है कि भादूल के कारण गांव में बीमारी नहीं आती है, इसीलिए गांव वाले भादूल को गुलेल या ढेला-पत्थर भी नहीं मारते हैं. छोटा भादूल घरों के छतों के आसपास ही रहता है, वह उड़ते उड़ते मच्छड़ों को छपटता हैं.
कोरोना को लेकर जब चर्चा होने लगी है कि यह महामारी चमगादड से मनुष्य में आया है अब वही वायरस एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में फैल रहा है. इस समाचार के बाद भादूल, हापूउ- चमगादड आंख के सामने मंडराने लगे. अपने गांव के इमली पेड़ के भादूलों की चेंचेंचें की आवाज कान में गुंजने लगी. गांव के खपरैल छतों के बांस, दीवार के छिदरों से फूरर फूरर उड़ते छोटे छोटे काले भादूलों का उड़ान भरना, ने दिमाग में हलचल ला दी. दो हजार पंद्रह में मैं जब अमेरिका गयी थी तब मुझे भादूलों को देखने के लिए कुछ साथी ले गये थे. मैं जगह भूल गयी हुं, जहां हर शाम को सेंकडों लोग उस वर्गाेकार घर से निकलने वाले छोटे भादूलों के निकलने और उड़ने को देखने के लिए जाते हैं. भादूलों के ठहरने के लिए वर्गांकार घर बनाया गया है, लोगों ने बताया कि वहां छह-सात हजार छोटा भादूल होगें जो हर शाम निकल कर बाहर जाते है.जब वे निकलते हैं तो भादूल का झुंण्ड आकाश को दो-तीन मिनट के लिए बादल की तरह ढंक लेता है. भादूल सूरज की रोशनी खत्म होते ही बाहर निकलते हैं और कहीं चले जाते हैं और सुबह होने से पहले वहीं वापस आ जाते हैं.