कोरोना लॉक डाउन में, बगैर वनोपज, छत्तीसगढ़ के आदिवासी कैसे बनेंगे आत्मनिर्भर?

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विश्वव्यापी महामारी कोरोना के संकट से देश की अर्थव्यवस्था की स्थिति गंभीर हो चुकी है. इस  अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए मोदी सरकार ने 2 लाख करोड़ के पैकेज की घोषणा की है पर इसमें सामाजिक सुरक्षा के नाम पर नई  घोषणा और रिपैकेज की गई है.

छत्तीसगढ़, खनन दृष्टिकोण से, देश के चुनिंदा कॉरपोरेट घरानों का एक महत्वपूर्ण अड्डा माना जाता है जहाँ की  कीमती संपदाओं के बंदरबाट से सरकारों को ही नही, कॉरपोरेट घरानों को भी अच्छा खासा फायदा होता है और अब खनिज संशोधन बिल 2020 से रास्ता और भी आसान हो चुका है. वैसे सरकार के  चश्मे से देखें तो अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने के लिए प्राकृतिक संपदाओं के खनन के लिए कॉरपोरेट घरानों को आवंटित करना एक आसान रास्ता हो सकता है, जो कि कोरोना महामारी से निपटने का सबसे महत्वपूर्ण कारक बन सकता है. अब तो उद्योगपतियों का भी कहना है कि  राज्य सरकारें टैक्स में छूट दें और केंद्र सरकार जमीन अधिग्रहण कानूनों और स्वीकृति के नियमों को सरल करे उदाहरण स्वरूप राज्य की हरियाली के प्रतीक, हसदेव अरण्य, पर कोयले के खनन के लिए कॉरपोरेट नजर टिका कर  बैठे हैं. उसी तरह राज्य के विभिन्न इलाकों के नीचे लोहा, सोना और कोयला  प्रचुर मात्रा में है वहीं जमीन के ऊपर वन संसाधन, वनोपज और पानी हैं जिसका सतत उपयोग और उपभोग यहाँ निवासरत आदिवासी करते आ रहे हैं.

वनोपज, कानून और क्रियान्वयन

राज्य के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का कहना है कि छत्तीसगढ़ के आदिवासी और किसानों की जेबों  में इतने पैसे डाल दिये हैं कि राज्य में अर्थव्यवथा संबंधित कोई दिक्कत आगामी दिनों में नहीं आएगी. वहीं  सीधे  तौर पर राज्य भर के 61% आदिवासी क्षेत्रों में कोरोना से और मुश्किल हुई जिंदगी जी रहे आदिवासी-किसान समुदाय को देखा जा सकता है. कहीं मौसम की मार के कारण वनोपजों में कमी, तो कहीं सरकार द्वारा वनोपजों की खरीद पूर्व सुस्त तैयारियों का असर समुदाय  पर पड़ने लगा है. अगर सरकार की वनोपज खरीद संबंधित तैयारी और मंशा होती, तो बस्तर जैसे क्षेत्रों में, जहाँ एक साल में वनोपजों से 10 हजार करोड़ का कारोबार होता है, लाखों आदिवासियों को प्रवासी मजदूर बन विभिन्न राज्यो में जाना ही नहीं पड़ता.

अभी भी राज्य में सही नीतियाँ और तकनीक स्थापित नही हुई हैं. न तो वनोपजों के स्टोरेज पर क्षेत्रीय स्तर पर उचित कदम उठाया गया है, न ही इससे संबंधित कुटीर उद्योग जैसे बेहतर विकल्पों से बारे में सोचा गया है. सत्ता में  आते ही बघेल सरकार ने वादा किया था कि वन अधिकार कानून 2006 के तहत वन निवासी  समुदायों के लिए वन संसाधनों के उपयोग एवं उपभोग के लिए सकारात्मक कदम उठाया जाएगा ताकि समुदाय स्व-शासन  कर संसाधनों को नियंत्रित कर सके. किंतु सरकार आदिवासी समुदायों को मजबूत करने वाले पेसा कानून 1996 को भी अब तक अमल हीं करा पाई है.

सवाल ये भी है कि आदिवासी मंत्रालय भारत सरकार द्वारा 1 मई को जारी आदेश के अनुसार संशोधित दरों पर  राज्य के अंदरूनी इलाको में वनोपजों की बिक्री हो रही है या नहीं उक्त आदेशनुसार 49 प्रकार के वनोपजों के  दामो में वृद्धि की गई है. जबकि ज्यादातर जगहों पर पुरानी  दरों की लिस्ट का संशोधन वन विभाग द्वारा नहीं किया गया है. उपरोक्त तथ्यों से ये समझ बनती है कि आत्मनिर्भर बनना आसान नहीं है. आपके लिए आपकी सरकार  ही काफी है पूंजीवादी व्यवस्था थोप कर आपको लूटने के लिए.

तेंदू पत्ता की खरीद पर सरकार कमजोर क्यूँ?

छत्तीसगढ़ वन विभाग के 16 अप्रैल  के सर्कुलर के हिसाब से राज्य से लगभग 16.71 लाख  मानक बोरे तेंदू पत्तों की खरीद होनी थी इससे लगभग 13 लाख परिवारों को सीधे तौर पर राशि मिलनी थी. किंतु बस्तर संभाग के विभिन्न क्षेत्रों से लोगों का लगातार आरोप रहा है कि सरकार ने तेंदू पत्ता संग्रहण के दिनों में कटौती की है. जहाँ लोग लगभग 7 से 10 दिनों तक पत्ते एकत्रित करते थे, वहीं इस बार परिवारों को सिर्फ 3 दिनों की मोहलत दी गई, जिससे पत्ते जंगलो में बचे रह गए. आमाबेड़ा, कांकेर, से सगदु सलाम ने बताया कि, “तेंदू पत्ता सिर्फ 3 दिन ही चला है. हम अपने जमीन के भी पत्ते जमा करना खत्म नहीं कर पाए, जंगल में अभी भी पत्ते पड़े है. इस बार आमदनी में बहुत कमी आयी है, सरकार की लापरवाही के कारण 1 सप्ताह लेट से चालू होने के कारण आदिवासियों को दिक्कत हो रही है.” 

साथ ही प्रधानमंत्री बीमा सुरक्षा योजना के तहत बीमा का लाभ नही दिया गया, न ही सरकार ने बीमा की प्रीमियम राशि जमा की ऐसी  कठिन परिस्थितियों में सरकार का  रवैया निदंनीय है इससे लाखों आदिवासी परिवारों की आजीविका पर सीधा असर पड़ेगा. दंतेवाड़ा जिला के ललित होड़ी, जो तेंदू पत्ता संग्रहण करते हैं, ने भी बताया कि “इस बार तेंदू पत्ता खरीदी में सरकार बहुत कमजोर दिखी. इस बार आमदनी भी कम हुई है और आजीविका में तकलीफ हो रही है.”


Photo : Shri Gorde

Anubhav Shori

अनुभव शोरी कोईतुर समाज के आदिवासी अधिकार कार्यकर्त्ता हैं. वह उत्तर बस्तर कांकेर में स्थित "माटी" (लीगल एंड एन्वॉयरन्मेंट रिसोर्स सेंटर) से जुड़े हुए हैं.

One thought on “कोरोना लॉक डाउन में, बगैर वनोपज, छत्तीसगढ़ के आदिवासी कैसे बनेंगे आत्मनिर्भर?

  • May 18, 2020 at 10:48 pm
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    Akshya-ji, nice article. I would like to know more about your work. Please contact me at ATREE, Bengaluru. Sharad Lele

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