झारखंड का 19 वां वर्षगांठ आदिवासियों के लिए क्या मायने रखता है?
- झारखंड का 19 वां वर्षगांठ आदिवासियों के लिए क्या मायने रखता है? - December 5, 2019
अपनी अलग सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक विविधता से परिपूर्ण और विख्यात झारखंड आज अपनी 19वीं वर्षगांठ मनाने में मग्न है. चारों ओर पहाड़ों – पठारों की सौंदर्य, कल–कल करती इंद्रधनुषी छटा बिखेरते झरने – नदियां, अपने अलग पर्व – त्यौहार, परंपरा, संस्कृति, शांत स्वभाव के लोग, परिपूर्ण खनिज संपदा इसे अन्य राज्यों से अलग महत्व प्रदान करती है.
झारखंड राज्य अस्तित्व में आने से पहले अंग्रेजों के जमाने में बंगाल प्रेसिडेंसी का हिस्सा था. उस समय इस क्षेत्र को छोटानागपुर के नाम से जाना जाता था. 1912 में उड़ीसा का अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आने के बाद बिहार 1936 में बंगाल प्रांत से अलग हुआ. आज़ादी के पहले से लेकर कई दशकों तक अलग राज्य की मांग के परिणाम स्वरूप, 15 नवंबर 2000 को बिहार शासन प्रणाली से पृथक एक अलग राज्य झारखंड का गठन हुआ. झारखंड राज्य के गठन हेतु भारतीय संविधान के अनुच्छेद 3 के तहत 2 अगस्त 2000 को लोकसभा में बिहार राज्य पुनर्गठन विधेयक पारित किया गया.
15 नवंबर 2000 को अस्तित्व में आया झारखंड अब अपनी युवावस्था पार कर चुका है. संवैधानिक रूप से भी देखा जाए तो एक युवा को 18 वर्ष पूरा होने पर मत देने का अधिकार प्राप्त हो जाता है. शोधकर्ताओं की मानें तो एक युवा का 18 वर्ष तक का उम्र सीखने का उम्र होता है. उसके बाद वह वयस्क में गिना जाता है. उसी संदर्भ में यदि हम झारखंड को देखें तो अब यह वयस्क हो चुका है. अब उसकी सीखने की उम्र भी पार हो चुकी है, अब वक्त है अपने 18 साल की सीख को कार्यकाल में सही तरह लागू करने की.
झारखंड न केवल सामाजिक रूप से धनी है बल्कि आर्थिक रूप से भी यह देश के जीडीपी में अहम योगदान प्रदान करता है. पूरे देश में पाए जाने वाले खनिज संपदाओं का लगभग 40% संपदा झारखंड के गर्भ में समाए हुए हैं. इसलिए इससे ‘भारत की रूर‘ की संज्ञा दी जाती है. पायरईट (95%), अभ्रक (58%), कोयला (40%), यूरेनियम उत्पादन में झारखंड पूरे देश में अव्वल है.
सामाजिक रूप से भी झारखंड की भाषाओं, संस्कृति, पर्व त्यौहार, रीति–रिवाज, में प्रचूर विविधता है. पूरे झारखंड में लगभग 32 आदिवासी समुदाय हैं, जिनमे काफी समानताएं और कुछ असमानताएं भी हैं. क्रमशः संथाल, उरांव, मुंडा, हो, आदि समुदायों की संख्या राज्य में सबसे अधिक है. सरहुल, करम, सोहराई आदि त्योहार यहां के लोग बढ़–चढ़कर उत्सव के रूप में मनाते हैं. 40% आदिवासी बहुल राज्य झारखंड में आदिवासी–मूलवासी की राजनीति के बिना किसी भी राजनीतिक पार्टियों की सरकार नहीं बन पाती है.
ये अलग बात है कि इस राज्य ने अपनी अपार खनिज संपदा, विश्व प्रसिद्ध सामाजिक– सांस्कृतिक व्यवस्था, के कारण अपनी पहचान पूरे विश्व में बटोरी है, परंतु झारखंड राज्य की मांग करने वाले आंदोलनकारियों से बात करने से यह सारी चीजें धुंधली सी लगती हैं. झारखंड आंदोलनकारियों की मानें तो उनकी अपार आकांक्षाएं थीं कि झारखंड के अस्तित्व में आने से उनके अपने स्थानीय लोगों को अच्छा रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा और उनके अपने संवैधानिक हक–अधिकार आसानी से प्राप्त होगा. परंतु आज की वर्तमान स्थिति से वे नाखुश नजर आते हैं. वे ठगा सा महसूस करते हैं.
19 वर्ष का युवा झारखंड जिसमें अपने पूरे अस्तित्व काल में झारखंड लोक सेवा आयोग (जे.पी.एस.सी.) की 19 परीक्षा होनी चाहिए थी; वहां अभी तक मात्र 6 परीक्षाएं हुई हैं और वह भी विवादित हैं. बहुत सारे युवा, जो प्रशासनिक सेवा में जाना चाहते थे या तैयारी में लगे हुए हैं – उनका भविष्य अंधेरे में लटका हुआ है. यही स्थिति अन्य विभागों में भी बनी हुई है. विभागों के पास रिक्त पदों की भरमार है, वे रिक्त पदों का विज्ञापन तो करती हैं, परंतु चयन प्रक्रिया पूरे होने से पहले ही उसे रोक देती है या यह विवाद में घिर जाती है.
प्रत्येक राज्य की अपनी स्थानीय नीति होती है, जिसके अनुसार राज्य में रोजगार और निवासी की मान्यता दी जाती है. झारखंड राज्य के बनने के बाद ही स्थानीय नीति बन जानी चाहिए थी, परंतु विडंबना ही कहें कि राज्य के अस्तित्व में आने के बाद लगभग 15 वर्षों के बाद, 7 अप्रैल 2016 को स्थानीय नीति की घोषणा की गई. इससे पहले बिहार राज्य के अनुसार ही सारी नियुक्तियां हुईं और पदों का विज्ञापन होता था. स्थानीय नीति तो बनी परंतु यह भी काफी विवादित मामला रहा है. स्थानीय नीति में 11 जिले और 13 जिलों के लिए अलग–अलग स्थानीय नीति परिभाषित की गई है जो काफी विवादित है. इस नीति के तहत अनुसूचित क्षेत्रों में अगले 10 वर्षों तक राज्य की तृतीय और चतुर्थ वर्गीय पदों की सरकारी नौकरियां स्थानीय लोगों के लिए आरक्षित कर दी गई है परंतु इसे भी आज तक पूरी तरह लागू नहीं किया गया है.
संवैधानिक अधिकारों को लागू करने में भी राज्य अपने 19 वर्ष के कार्यकाल में नाकाम साबित रहा है. आरक्षण रोस्टर को पूरी तरह से पालन नहीं किया जाता है. जे.पी.एस.सी. जैसे मुद्दे इसके सशक्त उदाहरण हैं. झारखंड आंदोलनकारियों की प्रारंभ से ही मांग रही है कि राज्य में पांचवी अनुसूची को लागू किया जाए, ग्रामसभा को मान्यता दी जाए. परंतु आंदोलनकारियों की आकांक्षाओं को दरकिनार करते हुए आज तक पांचवी अनुसूची को राज्य में लागू नहीं किया जा सका है. पांचवी अनुसूची के अंतर्गत ग्रामसभा की अनुमति के बिना कोई भी कार्य नहीं किया जा सकता है. पांचवी अनुसूची के अंतर्गत मुंडा शासन व्यवस्था, नागवंशी शासन व्यवस्था, पडहा पंचायत शासन व्यवस्था, मांझी परगना शासन व्यवस्था, मुंडा मानकी शासन व्यवस्था, ढोकलो सोहोर शासन व्यवस्था के अंतर्गत शासन प्रशासन चलता था, जिसे की हाशिये पर धकेलने का जबरदस्त प्रयास चल रहा है. यह हमारी पारंपरिक धरोहर है इसे संरक्षित करने की आवश्यकता है. बिरसा मुंडा, सिधु– कान्हू, चांद–भैरव, तेलंगा खड़िया आदि महान क्रांतिकारियों के क्रांति के परिणामस्वरूप छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी एक्ट) 1908, संताल परगना काश्तकारी अधिनियम (एसपीटी) एक्ट – 1949, छोटानागपुर भूस्वामी एवम् काश्तकारी प्रक्रिया अधिनियम 1897, इत्यादि झारखंड हित पर आधारित कानून बनाया गया परंतु किसी भी पार्टी की सरकार ने इसे लागू कराने की इच्छा नहीं जताई है.
झारखंड में 9 झारखंडी एवं क्षेत्रीय भाषाएं हैं जिसमें हो, मुंडारी, संथाली, खड़िया, कुडुख, नागपुरी, पंचपरगनिया, कुरमाली, खोइठा आदि प्रमुख हैं. राज्य इन भाषाओं को संरक्षित करने हेतु कोई विशेष प्रावधान नहीं कर पाई है. प्राथमिक स्तर पर इन भाषाओं की पढ़ाई की मांग झारखंड राज्य के बनने से पहले ही उठते रही है परंतु अभी तक इस पर अमल नहीं किया गया है.
एक अलग मुद्दा झारखंड का यह भी रहा है कि राज्य का आर्थिक सशक्तिकरण हो. झारखंड आंदोलनकारियों की ये मंशा थी कि झारखंड राज्य के गठन होने पर यह हो पाएगा. पूरे देश के 40% खनिज संपदा अकेले रखने वाला झारखंड में यह दिखाई नहीं देता है. झारखंड राज्य बनने के 19 वर्ष के बाद भी राज्य पलायन, विस्थापन, पुनर्वास, रोजगार, मानव तस्करी आदि पीड़ा अपने हृदय में समेटे हुए है. युवा आज भी अच्छे रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा के लिए सड़कों पर आंदोलन करते अक्सर दिखाई पड़ते हैं.
एक महत्वपूर्ण समस्या पूंजी का अभाव भी महसूस होता है. झारखंडयों के अपने आधिकारिक संपत्ति भूमि तो है परंतु वहां निवेश करने के लिए पूंजी का अभाव है. यदि उन्हें सस्ती और आसान बैंक ऋण मिलती है तो स्थानीय उद्योग स्थापित होने की संभावना बढ़ जाती है. नए–नए उद्योग लगने से राज्य में क्रय–विक्रय और सम्मुचित बाजार व्यवस्था बढ़ेगा. सभी लोगों के हाथों में पैसा आने पर क्रय–शक्ति का विकास होगा जिससे राज्य के राजस्व में बढ़ोतरी होगी. जिस राजस्व का उपयोग राज्य के अनुकूल विकास कार्यों में लगाया जा सकता है परिणामस्वरूप राज्य में आर्थिक सशक्तिकरण आएगा.
लगभग 79,714 वर्ग किलोमीटर तक विस्तृत यह राज्य अपने 14 लोकसभा सीट (अनु.जा. 01, अनु.ज.जा. 05, सामान्य 08) 6 राज्य सभा और 82 विधानसभा सीट (अनु.जा. 09, अनु.ज.जा. 28, सामान्य 44, मनोनीत 01) 5 प्रमंडल और 24 जिलों को समाए हुए हैं. अभी तक के अपने जीवन काल में यहां 5 बार विधानसभा चुनाव हुए हैं, जिसमें 06 लोग (वर्तमान – रघुवर दास) मुख्यमंत्री के पद पर आसीन हुए हैं. आगामी झारखण्ड विधान सभा के चुनाव, चर्चा किये गए मुद्दों का एक और टेस्ट साबित हो सकते हैं और यह वक्त ही बताएगा कि आने वाली सरकार आदिवासी बाहुल्य राज्य में किस हद तक आदिवासी केंद्रित मुद्दों पर काम करेगी.
19 वर्ष का युवावस्था पार कर चुका झारखंड को अब झारखंडी मॉडल की ओर बढ़ना चाहिए. सड़क, गली – नली, बिजली की राजनीति से ऊपर उठकर झारखंडी विकास, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और झारखंड हित की राजनीति होनी चाहिए. झारखंड में इन 19 वर्षों की सीख जो अब लागू करते हुए एक सशक्त झारखंड की ओर बढ़ने की पहल होनी चाहिए. वीर क्रांतिकारी सपूतों और झारखंड आंदोलनकारियों ने झारखंडियों के हितों के लिए जो सपना देखा था, जिसके लिए लड़े थे. उनके मॉडल को झारखंड में लागू करनी चाहिए ताकि उनके सपने साकार हो सके और झारखंड में झारखंडियों के हित के साथ पूरे देश का विकास हो सके.
फ़ोटो : Wasim Raja/Village Square