“धुमकुड़िया—एक आदिवासी संवाद श्रृंखला” अपने दूसरे सम्मेलन के लिए शोध पत्र आमंत्रित करती है

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– धुमकुडिया टीम


धुमकुड़िया, उराँव जनजाति के बीच एक पारम्परिक शैक्षणिक संस्थान है। आदिवासी के उद्भव से लेकर आज तक आदिवासी समाज में किसी-न-किसी प्रकार का शैक्षणिक संस्थान रहा है जिसमें ‘धुमकुड़िया’ का महत्वपूर्ण स्थान है| यह संस्थान सांस्कृतिक, पारम्परिक, ज्ञान का सृजन केंद्र, दर्शन, सामाजिक जुड़ाव, पारम्परिक प्रशासनिक व्यवस्था, और इन सबसे ऊपर जीवित रहने का सबब, पूर्वजों से सीखने का केंद्र इत्यादि है। सामानांतर संस्थान गिती-ओड़ा(संताल आदिवासी), गोटुल (गोंड आदिवासी)और सेल्नेडिंगो (बोंडा आदिवासी) हैं, जहां शिक्षा का तरीका मौखिक है और यह आज भी प्रशस्त है। आज के परिदृश्य में ‘ धुमकुड़िया’, आदिवासियों को ऐतिहासिक रूप में नकारात्मक तरीके से प्रदर्शित करने को नकारता है, वैकल्पिक विकास की संकल्पना जो की आदिवासी दर्शन के अनुसार टिकाऊ है को स्वीकार करता है| अस्तित्व, आदिवासियों के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण प्रश्नों में से एक है और ‘धुमकुड़िया’ टिकाऊ विकास के जनजातीय जीवन के विभिन्न घटकों के लिए मंच प्रदान करता है। जीवन के इन सवालों को ‘धुमकुड़िया’ महत्वपूर्ण स्थान देता है साथ ही भूत के शैक्षणिक विरासत को वर्तमान और भविष्य के शिक्षा से जोड़ने का संकल्प लेता है|    

इन संस्थानों की विरासत को आगे बढ़ाते हुए, “धुमकुड़िया” – आदिवासी-देशज ज्ञान प्रणालियों के पुनरुत्थान और पुनरुत्थान के लिए एक आदिवासी संवाद श्रृंखला सह सम्मेलन है। इस वर्ष, इसके दूसरे संस्करण में, धुमकुड़िया का आयोजन 25 दिसंबर को संगम गार्डन, रांची, झारखंड में किया जाएगा।

धुमकुड़िया क्यों?

चर्चा और बहस की दुनिया में जनजाति और उनके जीवन को सबसे अनदेखी और हाशिए पर रखे जाते हैं, और उनके विचारों को शायद ही कभी बहुत महत्व देकर सुना जाता है। यद्यपि आदिवासी पहले से ही थोपी गयी तमाम किस्म के विचारधाराओं में फंसे हुए हैं और अपने मजबूत दर्शन से बेखबर हैं तथापि आने वाले समय में धुमकुड़िया के संसर्ग में पनपने वाले विचार और दर्शन को इतिहास नहीं रोक पायेगा| ऐतिहासिक रूप से, प्रमुख सभ्यता हमेशा श्रेष्ठ रूप में देखी जाती है और बाकी सभ्यताएं उनके द्वारा लिखित वृतांतों के मार्ग का पालन करने का प्रयास करती है। अग्रणी सभ्यता का निर्माण करने के लिए, विषमता के बावजूद, पृष्ठभूमि निर्माण, सकारात्मक लेखन बहुत ही महत्वपूर्ण है।

लैटिन अमेरिकी विद्वान, ग्रिमाल्डो रेंगीफो वास्केज का कहना है कि, “स्थानीय आदिवासी सोच में, जीवित ज्ञान है जो चीजों की प्रकृति के बारे में बहुत से पूर्व तथ्यों को इकट्ठा नहीं करता है। जैसा कि वे कहते हैं, ‘आपको जानना है तो आपको जीना है’”। जबकि कई टिप्पणीकार पश्चिमी ज्ञान को आदिवासी समुदायों के लिए महत्वपूर्ण और रणनीतिक रूप से जरूरी मानते हैं| पश्चमी विचारों में काफी पूर्वाग्रहें भी निहित हैं जो यदा-कदा आदिवासियों के लिए असभ्य शब्दों का इस्तेमाल करते रहे हैं और आदिवासी सोच को निम्नतर समझने और उसे दरकिनार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है| फलस्वरूप आदिवासियों को उनके पारम्परिक जीवन पद्धति, प्राकृतिक शिक्षा पद्धति, भाषा इत्यादि से महरूम ही रखा गया है|

सोशल वैज्ञानिक, बेंजामिन बार्बर हमें बताता है कि, ” शिक्षा प्रणालीगत कहानी वाचन है” (1987, पृष्ठ 2)। शिक्षा हमें एक ऐसी कथा प्रदान करती है जो समाज में हमारी भूमिका को परिभाषित करती है। भारत में औपचारिक शिक्षा हमें मूल्यों के एक सामान्य समूह, दुनिया को समझने और इसमें अभिनय करने का एक तरीका है। लेकिन कौन सी कहानी हमारी है? “हम” कौन हैं जो कहानी को दावा करते हैं जो हमें भारतीयों के रूप में परिभाषित करता है? कौन निर्णय लेता है कि कौन सी कहानी या कहानियां स्कूल में पढ़ी जाएंगी, जिनके ज्ञान और प्राथमिकताओं की गिनती है, और इन प्राथमिकताओं पर मूल्यांकन करने के लिए किस मानदंड का उपयोग किया जाएगा?

एक बहुसांस्कृतिक समाज में, शैक्षणिक पद्धतियों को कई अलग-अलग आलेखों/कथाओं से सूचित किया जाना चाहिए जो हमारी विविध सांस्कृतिक विरासत को परिभाषित करते हैं। अधिकांश बहुलतावादी समाजों में, जहां कई संस्कृतियां सह-अस्तित्व में हैं, शैक्षिक संस्थान एकल पद्धति को बढ़ावा देते हैं, जो ठीक नहीं है। धुमकुड़िया के परिप्रेक्ष्य में, सांस्कृतिक  दस्तूर का मूल्य, दुनिया की बेहतर समझ, नैतिक समझ इत्यादि को आधुनिक शिक्षा पद्धति ने अनदेखा किया है। दुर्भाग्यवश, बृहत् मुख्य भीड़ में समाहित हो जाना ही जैसे विकल्प रह गया है जहाँ ‘बहु’ का अभाव है और ‘एकल’ को प्रमुखता दी जा रही है| इस तरीके से आदिवासी अपने जीवन पद्धति से विमुख हो जायेंगे चाहे ये पद्धति कितना ही धनी क्यों न हो|शुरुवाती दौर में, 1947 में हमें मामूली स्वतंत्रता मिलने के बाद, भारत में आदिवासियों के लिए कई योजनाएं और विशेष कार्यक्रम पेश किए गए थे, लेकिन आदिवासियों की मूल स्थिति अभी भी वही है। संविधान के 5वीं अनुसूची के तहत अधिकार, पेसा (दि प्रोविज़न ऑफ़ पंचायत एक्सटेंशन टू शेड्यूल्ड एरिया -1996), वन अधिकार अधिनियम (2006) और जनजातीय उप योजना (1974) इत्यादि सिर्फ आँखों में धूल झोंकने के लिए हैं जो कभी भी आदिवासियों को लाभ प्रदान करने के लिए उचित रूप से डिजाइन नहीं किए गए हैं। इसी तरह, आदिवासी समुदायों को शोषण से बचाने के लिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार रोकथाम) अधिनियम, 1989 है। इसके बावजूद, आदिवासी समुदाय को कमजोर करने में गैर जिम्मेदार और बेईमान नौकरशाही, कानून रक्षक और राजनीति के बड़े हाथ हैं। धुमकुड़िया इन प्रमुख मुद्दों को भी प्रमुखता से स्थान देता है।  इस समय विद्वानों को सामुदायिक रूप से सीखने के प्रामाणिक तरीकों पर जोर देना चाहिए जिसमें पारिस्थितिक, आध्यात्मिक इत्यादि का भी महत्वपूर्ण स्थान है| सीखने का यह एक रूप है और यह जानकर कि आदिवासी आंदोलन स्कूलों और सीखने की अन्य स्थानों में पुनरुत्थान, मूल्य, सम्मान को निहित करना चाहता है, न केवल अपने बच्चों के लाभ के लिए, बल्कि पूरी दुनिया के बचाने के लिए।मूल विचार यह है कि, आप मांसाहारी शेरों द्वारा शासित साम्राज्य में रह रहे हैं और दुर्भाग्यवश, हिरण का इतिहास शेरों द्वारा कभी नहीं लिखा जा सकता है, जब तक हिरण अपना खुद का इतिहास न लिख रहा हो। अब जब आदिवासी विद्वान अकादमिक दुनिया में बहुत मुखर हैं, केवल वस्तु और दर्शक बने रहना अपराध है। हालांकि, हम पहले से ही काफी लम्बी अकादमिक यात्रा कर चुके हैं जोकि कुछ पथदर्शी लोगों द्वारा पोषित रहा है, लेकिन अब और भी लम्बी यात्रा के लिए जाने की जरूरत है, जहां हम आने वाले भविष्य में कुछ और मील का पत्थर स्थापित करने की उम्मीद कर सकते हैं।आदिवासियों से सम्बंधित — गरीबी, भूख, संवैधानिक अधिकार, संस्कृति परंपरा, और अधिक (गैर) सभ्य समाज में शामिल होने, अस्तित्व बचाने के लिए प्रतिरोध, अक्सर समाचार होते हैं| सम्मानित जीवन तो हर कोई जीना चाहता है और उसके लिए संघर्ष भी करना चाहता है और इसमें आदिवासी समाज अपवाद नहीं है। भारत में जनजातियों के उत्थान के लिए विभिन्न सरकारों द्वारा बहुत प्रयास किये गए हैं साथ ही आदिवासी खुद भी अपने तरीके से प्रयास किये हैं और दोनों प्रयास अक्सर अलग दिशाओं में जाती हैं| सरकारी प्रयासों में, औद्योगिकीकरण और शहरीकरण के माध्यम से पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं की जीवन शैली उनमें से एक है। वैकल्पिक रूप से, एक व्यक्ति (आदिवासी) पूरे मानव जीवन में पूंजी की उत्पादक क्षमता को बनाए रखने के माध्यम से सतत विकास की परिधि में सोचता है। इस तरह के वैकल्पिक विचार से विश्व के कोई भी आदिवासी समुदाय अछूता नहीं है, चाहे वो माओरी हो या मोहोक, या भारत के जनजाति। “धुमकुडिया-2019” आपलोगों से शोध पत्र निम्नलिखित विषयों पर आमंत्रित करता है-

(1) संस्कृति और परंपरा

• हमारे आधुनिक जीवन शैली के साथ हमारे पारंपरिक जीवन शैली की संगतता।

• वर्तमान समय में रीति-रिवाजों और परंपराओं का अभ्यास|

• भाषा, साहित्य, कला, संगीत और रीति-रिवाज के लिए चुनौतियां।

• संस्कृति, परंपरा और सुधार|

 

(2) संवैधानिक अधिकार और स्वायत्तता

• संविधान और मानवाधिकार।

• जनजातियों के बीच लोकतंत्र और कानून।

• परंपरागत कानून और संविधान।

 

(3) वैश्वीकरण के समय में आदिवासी

• वैश्वीकरण दुनिया में जनजाति।

• जनजातियों के बीच सामाजिक संस्थानों की आवश्यकता|

• आदिवासी समाज और सामाजिक बुराइयाँ जैसे — डाईन प्रथा, दहेज, अपराध और भ्रष्टाचार।

• वैश्वीकरण की दुनिया में जनजातियों के बीच लोकतंत्र और एकता।

• सामूहिकता और समाजवाद की भावना।

 

(4) शिक्षा और स्वास्थ्य

• जनजातियों के बीच शिक्षा और स्वास्थ्य।

• पारंपरिक शिक्षा संस्थान बनाम आधुनिक शैक्षणिक संस्थान।

• जनजातियों की शिक्षा और सामाजिक-आर्थिक स्थिति।

• समाज में जनजातीय बौद्धिकता की भूमिका|

• शिक्षा और विकास।

 

(5) इतिहास निर्माताओं के रूप में जनजाति

•आदिवासियों में मेगालिथिक परम्परा|

• इतिहास लेखन का महत्व।

• इतिहास बनाने का महत्व।

 

(6) लिंग समानता

• लिंग समानता और जनजाति।

• जनजातियों के बीच लिंग और अपराध।

 

(7) खाद्य और आजीविका

• पारंपरिक खाद्य बनाम फास्ट फूड|

• वन उत्पाद, बाजार और प्रबंधन|  

 

(8) शिक्षा और आर्थिक विकास

• सतत विकास और जनजाति।

• जनजातियों के बीच पूंजी।

 

(9) साहित्य

• आदिवासी साहित्य और इसका इतिहास।

• साहित्य, संगीत और गीत।

 

(10) कृत्रिक ज्ञान के समय में आदिवासी

• जनजाति और प्रौद्योगिकी।

• सतत प्रौद्योगिकी और जनजाति।

 

(11) जनजाति और पर्यावरण

• जनजातियों के लिए आजीविका के रूप में प्रकृति।

• प्राकृतिक संसाधन और जनजातियां।  

 

(12) जनजातियों के बीच कृषि और उद्योग 

• उद्योग के रूप में कृषि।

• पारंपरिक कृषि एवं आजीविका।

 

(13) जल और वन संसाधन

• वन संसाधन प्रबंधन|

• जल संकट एवं जल संसाधन|

 

(14) जनजातीय चिकित्सा और उपचार तंत्र

• पारंपरिक जनजातीय चिकित्सा।

• पारंपरिक बनाम आधुनिक उपचार तंत्र|  

 

(15) लोकगीत और लोककथाओं

• पारम्परिक एवं आधुनिक कथा वाचन|  

• कल्पित और अकल्पित कहानियां।


यदि आपकी दृष्टि, कल्पना और संभावित लेख उक्त विषयों के बाहर आता है लेकिन जनजातियों से सम्बंधित हैं तो धुमकुडिया-2019′ उसे अपने चर्चा के विषय में शामिल जरूर करेगा। आप अपने लिखे गए शोध पत्र निम्नलिखित ई-मेल पर भेजें – dhumkudiyaa@gmail.com


अपना सार भेजें: 30/09/2019

पूरा पेपर भेजें: 15/11/2019


 

Editor

Editorial Team of Adivasi Resurgence.

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