खरसावां गोलीकांड: हज़ारों झारखंडियों के संघर्ष, शहादत और दमन की गाथा

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फोटो : Manish Shandilya/BBC


शायद भारतीय इतिहासकारों ने 01 जनवरी 1948 को हुई खरसावां गोलीकांड का ज़िक्र तक नहीं किया होगा। ‘खरसावां’ आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र था, जो उस समय एक रियासत हुआ करता था। तत्कालीन गृहमंत्री सरदार बल्ल्व भाई पटेल जो भारत के सभी प्रांतो को संघात्मक भारत का हिस्सा बनाना चाहते थे, उन्होंने देशी रियासतों को तीन ग्रुप मे बांटा था।

वह ग्रुप थे- ए, बी और सी। ‘ए’ श्रेणी में भारत की बड़ी रियासतें, ‘बी’ श्रेणी में मध्यम और ‘सी’ श्रेणी में छोटी रियासते थीं। खरसावां एक छोटी रियासत थी। ओडिसा में उड़िया भाषा बोलने वालों की संख्या अधिक थी जिस वजह से ‘पटेल’ खरसावां और सरायकेला रियासतों को ओडिसा में विलय कर देना चाहते थे।

उन दिनों इन रियासतों से अलग झारखंड राज्य का आंदोलन ज़ोरों पर था। खरसावां और सरायकेला के आदिवासी ओडिसा में शामिल होना नहीं चाहते थे। हम जलियांवाला बाग की घटना बचपन से पढ़ते आ रहे हैं जहां ज़ालिम अंग्रेज़ ‘जनरल डायर’ ने सैकड़ों भारतीयों की गोली मार कर हत्या कर दी थी।

बहुत कम भारतीयों को यह पता होगा कि आज़ाद भारत मे ‘ओडिसा मिलिट्री पुलिस’ द्वारा खरसावां रियासत के आदिवासियों की बेरहमी से हत्या कर दी गई थी। वह भी इसलिए कि वह लोग अलग आदिवासी राज्य की मांग कर रहे थे।

वर्तमान झारखंड राज्य के जमशेदपुर शहर से लगभग 65 कि.मी. दूर खरसावां में 01 जनवरी 1948 को एक भयानक गोलीकांड हुआ था। ‘ओडिसा मिलिट्री पुलिस’ द्वारा खरसावां हाट मे लगभग पचास हज़ार आदिवासियों पर अंधाधुंध गोलीबारी की गई थी ताकि आदिवासी आंदोलनकारियों की अलग झारखंड राज्य के आंदोलन को दबाया जाए और खरसावां रियासत को ओडिसा मे विलय कर दिया जाए।

इस भयानक गोलीकांड का मकसद यह था कि ‘खरसावां रियासत’ को ओडिसा राज्य मे विलय करते हुए स्थानीय आंदोलनकारियों को रोका जाए। उस समय बिहार के आदिवासी नहीं चाहते थे कि ‘खरसावां रियासत’ ओडिसा का हिस्सा बने लेकिन सेंटर के दबाव में मयूरभंज रियासत के साथ-साथ ‘सरायकेला’ और ‘खरसावां रियासत’ को ओडिसा में विलय करने का समझौता हो चुका था।

उन दिनो तीनों रियासतों के आदिवासी झारखंड राज्य की मांग कर रहे थे। 01 जनवरी 1948 को सत्ता का हस्तांतरण भी होना था जिस समय अलग झारखंड राज्य की मांग करने वाले नेता जयपाल सिंह मुंडा इस आंदोलन के लीडर थे। उन्हीं के आह्वान में लगभग पचास हज़ार आदिवासी आंदोलनकारी खरसावां में इक्कठे हो चुके थे। इस सभा में हिस्सा लेने के लिए जमशेदपुर, रांची, सिमडेगा, खूंटी, तमाड़, चाईबासा और दूरदराज के इलाके से आदिवासी आंदोलनकारी अपने पारंपरिक हथियारों से लैस होकर खरसावां पहुंच चुके थे।

इस आंदोलन को लेकर ओडिसा सरकार काफी चौकस थी और वह किसी भी हाल में खरसावां में सभा नहीं होने देना चाहते थे। खरसावां हाट उस दिन ‘ओडिसा मिलिट्री पुलिस’ का छावनी बन गया था। खरसावां विलय के विरोध में आदिवासी जमा हो चुके थे लेकिन किसी कारणवश जयपाल सिंह मुंडा सभा में नहीं आ पाए।

खरसावां हाट में भीड़ इक्कठा हो चुका था और जयपाल सिंह मुंडा के नहीं आने पर भीड़ का धैर्य जवाब दे चुका था। यहां तक कि कुछ आंदोलनकारी आक्रोशित भी थे।

 पुलिस किसी भी तरीके से भीड़ को रोकना चाहती थी लेकिन अचानक से ओडिसा मिलिट्री पुलिस ने भीड़ पर अंधाधुंध फायरिंग करना शुरू कर दिया।

फायरिंग की वजह से आदिवासी कटे पेड़ की तरह गिरने लगे। कोई ज़मीन पर लेट गए तो कुछ पेड़ों के पीछे छुपकर अपनी जान बचाने लगे।

 खरसावां हाट के बीच एक कुंआ था जिसमें पुलिस के जवानों ने कई लाशों को उठाकर फेंक दिया। कुछ लाशों को ट्रकों मे लाद कर पास के जंगलों मे फेंक दिया गया।

घटना के तुरंत बाद ओड़िसा सरकार ने सिर्फ 35 आदिवासियों की मारे जाने की पुष्टि की लेकिन पीके देव की एक पुस्तक ‘मेमायर ऑफ ए बाइगोर एरा’ (चेप्टर 6 पेज न .123) में दो हज़ार से भी ज़्यादा आदिवासियों के मारे जाने का ज़िक्र है। कोलकता से प्रकाशित अंग्रेज़ी दैनिक ‘द स्टेट्समैन’ ने 03 जनवरी 1948 के एक अंक मे छापा ’35 आदिवासीज़ किल्ड इन खरसावां।’

इस गोलीकांड का अभी तक कोई निश्चित दस्तावेज उपलब्ध नहीं है। इस गोलीकांड की जांच के लिए ‘ट्रिब्यूनल’ का गठन भी किया गया था पर आज तक उसकी रिपोर्ट कहां है किसी को नहीं पता।

इस भयानक गोलीकांड के बाद खरसावां हाट में ‘शहीद स्मारक’ बनाया गया। हरेक वर्ष 01 जनवरी को बड़ी संख्या मे झारखंडी इक्कठे होते हैं। खरसावां का यह ‘शहीद स्मारक’ झारखंड की राजनीति का एक बड़ा केंद्र भी माना जाता है।

‘खरसावां गोलीकांड’ हुए एक अरसा बीत गया। कई कमिटियां भी बनी, जांच भी हुई परन्तु आज तक इस घटना पर कोई रिपोर्ट नहीं आया। ‘जलियांवाला बाग कांड’ के असल विलेन ‘जनरल डायर’ को तो पूरा विश्व जानता है लेकिन ‘खरसावां गोलीकांड’ में मारे गए हज़ारों झारखंडियों की हत्या करने वाला असली डायर कौन था, इस पर आज भी पर्दा पड़ा हुआ है।


नोट: इस आर्टिकल के सभी सामग्री अनुज कुमार सिन्हा द्वारा लिखित पुस्तक ‘झारखंड आंदोलन का दस्तावेज’ से लिए गए हैं।


यह लेख मूल रूप से YouthKiAwaaz में प्रकाशित हुआ था।

Raju Murmu

सोशल मिडिया ने मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया। मेरा बचपन युवा होने तक बिहार की राजधानी में गुजरा । लेकिन कहीं ना कही मेरे अंदर झारखण्ड की मिटटी मुझे खींचती रहती थी। संतालपरगना मेरा पैतृक भूमि है। इस लिए मेरे लेखन में झारखंडीपन झलकता है। मैं अपने लेखन से भारत के विभिन्न राज्यो के जनजातियों की समस्याओं और उनकी सामाजिक विशेषता को अपने लेखन के माध्यम से उकेरने की कोशिश करता रहता हूँ।

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