गाँव और ग्रामीणों के पलायन की अर्थशास्त्रीय विवेचना
Featured Image: Collin Key
एक तरीके से सोचा जाये तो पलायन और तस्करी को आर्थिक विकास (वैश्वीकरण, शहरीकरण, औद्योगिकरण इत्यादि) का परिणाम कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी| वैसे देखा जाये तो आर्थिक विकास की परिभाषा साफ़-साफ़ अभी तक नहीं दी गयी है, लेकिन न्यूनतम तरीके से कम-से-कम इतना समझा जा सकता है कि अभी के परिवेश में रोटी, कपड़ा और मकान सबको चाहिए| मतलब इसे आप आधारभूत जीवन-यापन का मानक कह सकते हैं| तथापि, भविष्य की ओर निगाह डालें तो अभी के समय में लोगों को बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली के अलावा टेलीविज़न, कार, फ़्रिज, पक्के मकान, जिम इत्यादि भी चाहिए| विकास की जब भी बात करें तो आप इन्ही सब चीजों के इर्द-गिर्द घूमते नजर आएंगे, जिसमें बहुत सी विकास की अवधारणाएं विरोधाभासी लगने लगेंगी, जैसे – औद्योगीकरण से ही टेलीविज़न, कार और फ़्रिज आएंगे लेकिन उद्योग धंधे वायु और पानी को दूषित करेंगे ही और शुद्ध हवा और पानी तो सबको चाहिए| कुल मिलाकर इस तरह के विरोधाभास से हम सभी जूझ रहे हैं| मुझे लगता है अपनी आवश्यकताओं को नियंत्रित कर अतिउपभोग से बचा जा सकता है और पृथ्वी की समस्त पूँजी यथा – प्राकृतिक पूँजी, मानव पूँजी और भौतिक पूँजी की उत्पादकता को यथावत और सतत और संतुलित बनाये रखा जा सकता है|
आज के कुछ महत्वपूर्ण सवालों में कृषि और ग्रामीण क्षेत्र का सिकुड़ना तथा उद्योग और सेवा क्षेत्र का फैलाव महत्वपूर्ण है| हम ऐतिहासिक रूप से देखते आ रहे हैं की भारत की 70% जनता कृषि पर निर्भर है लेकिन अब थोड़ा घटकर 56% के आसपास रह गया है| अभी सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान लगभग 17%, उद्योग का योगदान 29% और सेवा क्षेत्र का योगदान लगभग 54% के आसपास है| वैसे रोजगार सृजन के दृष्टिकोण से सेवा क्षेत्र सबसे आगे है फिर उद्योग और अंततः कृषि क्षेत्र का स्थान आता है| ध्यान रहे सकल घरेलू उत्पाद जिस तेजी से बढ़ता है उसी तेजी से रोजगार में वृद्धि नहीं होती है इसका प्रमुख कारण है – पहले से रोजगार में लगे व्यक्ति से ज्यादा काम लिया जाता है या फिर मजदूर की उत्पादकता बढ़ जाती है या दोनों होती है| भारत में कृषि क्षेत्र की अनदेखी और व्यवसायीकरण नहीं होने की वजह से छिपी हुई बेरोजगारी कृषि के क्षेत्र में सबसे ज्यादा है| दुनिया भर के कृषि प्रधान और विकासशील देशों में छिपी हुई बेरोजगारी की वजह से न सिर्फ उत्पादकता में प्रतिकूल प्रभाव हो रहा है बल्कि बढ़ते युवाओं की संख्या को भारतीय अर्थव्यवस्था में इस्तेमाल करने से वंचित हो रहे है| वैसे, पारम्परिक ग्रामीण खेती (खासकर आदिवासियों के बीच में) का सम्बन्ध आर्थिक विकास से कम, और कृषि तथा जमीन से भावनात्मक लगाव ज्यादा है, इसमें एक कोंध आदिवासी की बात बड़ी सटीक लगती है – “आपके समाज में संत कहाँ हैं? हमारे गाँव में हम सब संत हैं, हमारी जरूरतें सबसे कम हैं, हमारे पास जो भी है हम साझा करते हैं और कुछ भी बेकार में नष्ट नहीं करते हैं (पेडल और दास -2012)|” मतलब उत्पादकता की अधिकता और कमी दोनों ही स्थिति में साझा करना बहुत ही महत्वपूर्ण है| आदिवासी और ग्रामीण परिवेश की आर्थिकी में ‘साझा’ महत्वपूर्ण है न की आय में अत्यधिक वृद्धि|
बहरहाल, वर्तमान में मध्यम वर्गीय परिवारों की जरूरतों में काफी बदलाव आने लगे हैं| बदलाव ऐसे की अब माध्यम वर्गीय परिवारों के आय वृद्धि होने पर पोषण तत्व युक्त भोजन कम और विलासिता पूर्ण वस्तुओं में ज्यादा खर्च होने लगी है| कुल मिलाकर ग्रामीण और कृषि कार्य से जुड़े परिवार अपने तरीके से आय बढ़ाने की इच्छा रखते हैं और कोशिश भी हो रही है लेकिन ज्यादातर कृषि उत्पाद, मनुष्य की अति-जरूरतों और राजनीति से जुड़ी हैं इसलिए इनको शायद ही कभी उचित मूल्य मिलते हैं बल्कि राजनीतिक मूल्य (राजनीति के बदलते परिदृश्य के अनुसार मूल्य में परिवर्तन) मिलते हैं, अन्यथा अत्यधिक मूल्य वृद्धि, मुद्रास्फीति का कारण बन सकती हैं और राजनीतिक अस्थिरता ला सकती हैं या सत्ता परिवर्तन भी हो सकता है, जैसे — प्याज की क़ीमत की वजह से 1998 के दिल्ली के चुनाव में बीजेपी को कांग्रेस से मुँह की खानी पड़ी उसी प्रकार से 2010 के दिल्ली के चुनाव में कांग्रेस बड़ी मुश्किल से अपनी सत्ता बचा पायी थी|
कृषि में आय की वृद्धि के प्रयास का नतीजा ये है की कृषि क्षेत्र में प्रगति के बजाय संकुचन आ रही है जैसे — कृषि पर लोगों की निर्भरता कम हो रही है, कृषि का योगदान सकल घरेलू उत्पाद में कम होता जा रहा है, जैसे – 1950-51 में कृषि का योगदान सकल घरेलू उत्पाद में 57% था, जो अब घटकर सिर्फ 17% रह गया है| सरकार के प्रयासों को देखकर लगता है की ये अगले दस सालों में 5% से नीचे चली जाएगी| दरअसल, बहुत सारे विकसित देशों की आर्थिक प्रगति और कृषि का योगदान इसी प्रकार से घटता गया है| कोरिया में कृषि का योगदान सकल घरेलू उत्पाद में फिलहाल 1.1% रह गयी हैं, वहीँ जापान, अमेरिका और इंग्लैंड का योगदान क्रमशः 2.2%, 0.9% और 1% है| विकसित देशों में कृषि के मशीनीकरण से कुछ रोजगार का सृजन जरूर होता है परन्तु सेवा क्षेत्र के विस्तार की तुलना में कम ही है| विकसित देशों से सीखते हुए, देश के विकास और लोगों के प्रति-व्यक्ति आय में वृद्धि के लिए ग्रामीण कृषि क्षेत्र से लोगों को बाहर निकालकर उद्योग क्षेत्र में आगे बढ़ने और रोजगार ढूंढने को सरकार प्रोत्साहित करती रही है| फलस्वरूप कृषि क्षेत्र में संकुचन सोची समझी नीति का नतीजा है और पलायन के सबसे प्रमुख कारणों में, ये कारण सबसे प्रमुख है|
कहीं-कहीं सुखाड़/बाढ़ से कृषि पर नकारत्मक प्रभाव जरूर पड़ा है लेकिन किसी-किसी क्षेत्र को जान बूझकर सुखाड़ घोषित करना, अन्नाज का फ्री वितरण करना, और लोगों को बिना काम किये खाना उपलब्ध होना, कृषि को हतोत्साह करने का एक हिस्सा भी हो सकता है| अगर खनन वाले इलाके को बार-बार सुखाड़ घोषित किया जा रहा हो, इसका मतलब आपको समझ जाना चाहिए की अगले कुछ सालों में आपको अपने खेती योग्य जमीनों पर खनन में मजदूरी करके जीवन बसर करना पड़ सकता है| काफी सारे इलाकों जैसे – विदर्भ, बुंदेलखंड, झारखण्ड और ओड़िशा के कुछ इलाकों में मानसून वर्षा की कमी लगातार रिकॉर्ड की जा रही जो की निश्चय ही लोगों को पलायन के लिए मजबूर कर रही है| भूगर्भ जलस्तर लगातार नीचे जाने की वजह से भी कुँवें और तालाब से सिंचाई संभव नहीं है इसलिए कम-से-कम इस मामले में सरकार को गंभीरता पूर्वक और दूरदृष्टि सोच रखने की जरुरत है, अन्यथा निकट भविष्य में मानव सभ्यता के पलायन का वीभत्स रूप देखने को मिल सकता है| नदियों को योजनागत रूप से जोड़ने की योजना एक महत्वपूर्ण पहल हो सकती है|
अब तक अर्थशास्त्र पढ़े हुए मेरे साथी समझ गए होंगे की मैं लेविस – रेनिस फ़ाई और हैरिस – टोडारो टाइप के मॉडल की बात कर रहे हैं| जिसके मुख्य बातें यही है की देश की आर्थिक प्रगति के लिए कृषि क्षेत्र में मजदूरों की कम उत्पादकता (क्यूँकि अतिरिक्त मजदूरों की संख्या कृषि में अधिक है) होने की वजह से उद्योग और सेवा क्षेत्र की और रूख करेंगे, जिससे कृषि क्षेत्र और उद्योग और सेवा क्षेत्र की उत्पादकता बढ़ेगी और प्रति व्यक्ति आय में भी बृद्धि होगी| बदनसीबी बेरोजगारी की तब हो जाती है जब ग्रामीण कृषि क्षेत्र से निकलने के बाद लोग शहरों के पूलों के नीचे और रेलवे प्लेटफार्म और सड़कों पर जीवन व्यतीत करने को मजबूर हो जाते हैं|
कुछ समय के लिए मान लें कि सभी क्षेत्रों की उत्पादकता बढ़ेगी और प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होगी लेकिन आने वाले समय में फिर से मजदूरों की मजदूरी मशीनों द्वारा फिर से छीनी जाने वाली है जिसके बारे में असेमोग्लु और रेस्ट्रेपो (2018) बता चुके हैं की किस तरीके से अमरीका में मशीने मनुष्य के जगह में काम करने वाले हैं| कुल मिलाकर मजदूर लोगों के साथ भेदभाव चलता रहेगा ऐसा प्रतीत होता है|
लेविस (1954) में कृषि क्षेत्र से अतिरिक्त मजदूर को निकालकर उद्योग और सेवा क्षेत्र में डालने की बात कही है और यही बातें डा. भीम राव अम्बेडकर (अम्बेडकर, 1918) ने भी आज से ठीक 100 साल पहले कही थी जिसमे उन्होंने जमीन जोत स्वामित्व को कृषि उत्पादकता से जोड़ा है| उनका कहना था की भारत जैसे देश में छोटे जोत स्वामित्व जमीन अधिक हैं जो कि कृषि के लिए काफी हानिकारक है| वैसे भी अम्बेडकर औद्योगिकरण और शहरीकरण के बहुत पड़े पक्षधर थे जिसमें उन्होंने जाति व्यवस्था ख़त्म करने की कल्पना की थी| कुल मिलाकर अर्थशास्त्रियों द्वारा दिए गए इन सिद्धांतों से ग्रामीण परिवेश के आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को और आदिवासियों को क्या फायदा हुआ उस पर बहस हो सकता है लेकिन पलायन हुआ है और पलायन के बहुत ही कम सार्थक परिणाम सामने आये हैं, इसे झुठलाया नहीं जा सकता है|
ग्रामीण और शहरी विभाजन को बहुत तरीके से देखा जा सकता है| इस कड़ी में, ग्रामीण क्षेत्र में रहने वालों को राष्ट्रीय शिक्षा में समान रूप से जोड़ने की दिशा में इंटरनेट के योगदान पर थोड़ा प्रकाश डालते हैं| गांवों में बसने वाले मुख्यतः दलित और आदिवासी समुदाय के लोग हैं जो अभी भी बिजली, सड़क और इंटरनेट से महरूम हैं और तथाकथित सभ्य समाज से पीछे चल रहे है| अभी बहुत सारी परीक्षाऐं कंप्यूटर आधारित हो रहीं हैं और तकनीकि रूप से शिक्षित नहीं होने की वजह से ग्रामीण परिवेश के लोग बहुत सारी परीक्षाएं देने से ही वंचित हो रहे हैं| या यूँ कहें की तथाकथित सभ्य समाज आगे चल रहा है और जब तक तथाकथित पिछड़ा समाज पकड़ता है तब तक सभ्य समाज और आगे निकल जाता है| पिछले कुछ वर्षों में नीट (NEET – National Eligibility cum Entrance Test) और क्लैट (CLAT – Common Law Admission टेस्ट) इत्यादि की परीक्षा हुई है जो काफी खामियों से भरा था और सबसे ज्यादा प्रभावित वर्ग दलित, आदिवासी और कंप्यूटर अशिक्षित लोग ही थे| अब जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जे.एन.यू.) की प्रवेश परीक्षा को भी ऑनलाइन करने की घोषणा की जा चुकी है| जे.एन.यू. के साथ सबसे खास बात है की यहाँ की फीस काफी कम है, और दूसरा, ये विश्वविद्यालय भारत का एक बहुत ही महत्वपूर्ण बौद्धिक केंद्र माना जाता रहा है और पूरे देश से हर वर्ग, हर समुदाय से लोग यहाँ प्रवेश लेते हैं| अगर यहाँ भी वंचित वर्ग को कंप्यूटर के ज्ञान का शिक्षण दिए बिना ऑनलाइन परीक्षा थोपते हैं तो भारत का एक हिस्सा ऐसे महसूस करेगा जैसे वो भारत में हैं ही नहीं|