सिध्धू और कान्हू मुर्मू: अंग्रेजों के खून से शौर्य-गाथा लिखने वाले आदिवासी ‘नायक’

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by- Suraj Singh Thakur


उनके गले पर फांसी का दबाव जितना बढ़ता जाता, उनके इरादे उतने ही मजबूत होते जाते!

न चेहरे पर मौत का ख़ौफ़ और न कोई शिकन. उनकी आंखों में चमक थी और सीना फख्र से चौड़ा. उन्हें खुशी थी कि वह वीरों सी वीरगति पाकर अमर हो रहे थे.

यह कहानी है 1855 ईस्वी के ‘सन्थाल हुल विद्रोह‘ के नायक रहे सिद्दू -कान्हू नाम के दो भाइयों की, जिन्होंने अंग्रेज़ सत्ता पोषित साहूकारी व्यवस्था के खिलाफ हथियार उठाकर उनका मुंहतोड़ जवाब दिया. साथ ही हंसते-हंसते अपनी मिट्टी के लिए मौत को गले लगा लिया.

तो आईए जानते हैं कि कौन थे सिद्दू कान्हू और सन्थाल हुल की कहानी क्या थी–

भोगनादिह: जहां जन्मे सिद्धू कान्हू

1820 ईस्वी का समय रहा होगा, जब तत्कालीन बिहार के भागलपुर जिले के कलेक्टर ‘ऑगस्टस क्विसलेण्ड’ के आदेश पर कंपनी का एक अधिकारी ‘फ्रांसिस बुकानन’ राजमहल की पहाड़ियों को पार करके मैदानी इलाकों में आया. यह एक ऐसा क्षेत्र था, जहां कई आदिवासी गांव थे.

‘भोगनादिह‘ इन्हीं गांवों में से एक था, जहां एक आदिवासी परिवार में सिद्धू कान्हू ने अपनी आंखें खोली थी. जिस काल खंड में इन दोनों ने जन्म लिया, उस समय वहां के आदिवासी जंगल से लकड़ियाँ लाकर बाजार में बेचने, खेती जैसे कामों द्वारा अपना जीवन चलाते थे. मनोरंजन के लिए वह शिकार करना पसंद करते थे.

सिद्ध कान्हू का बचपन भी इसी वातावरण में बीता.

‘फ्रांसिस बुकानन’ का आगमन और…

वक्त के साथ दोनों भाई बड़े हुए तो उन्होंने देखा कि ‘फ्रांसिस बुकानन’ नाम का एक अंग्रेज अधिकारी उनके क्षेत्र में आया और उसने वहां झूम कृषि खेती की अपार संभावनाओं वाली एक रिपोर्ट सौंपी!

इस रिपोर्ट को आधार मानकर उसके सीनियर क्विसलेण्ड ने एक फरमान दे दिया. इसके तहत आदिवासियों को व्यवस्थित कृषि के लिए तैयार किया गया. साथ ही इसे स्थायी बंदोबस्त के दायरे में लाया गया, जिसका वहां के लोगों पर बुरा असर पड़ा.

असल में ‘झूम खेती’ आदिवासियों के लिए उलझन भरी थी. ऊपर से स्थायी बंदोबस्त के आदेश ने उनके कबीलों को घोर संकट में डाल दिया. यह कम था कि अंग्रेजों द्वारा एक और शोषणकारी व्यवस्था बनाई गई. इसके अनुसार आदिवासियों के जंगल से कोई भी संसाधन निकालने और शिकार पर रोक लगा दी गयी. चूंकि, सिद्धू कान्हू के गांव भोगनादिह में भी अंगेजों की यह व्यवस्था लागू की गई, इसलिए उनका प्रभावित होना लाजमी था.

यही कारण रहा कि उनके मन में अंग्रेजों के प्रति असंतोष का भाव पनप चुका था.

(A British Regiment attacking a Santhal village | www.columbia.edu)

आदिवासियों पर साहूकार की बर्बरता

सिद्धू कान्हू अंग्रेजों की नीतियों से पहले से ही नाराज थे. इसी बीच एक ऐसी घटना हुई, जिसने उनके असंतोष को हवा दे दी. बताया जाता है कि दोनों भाई रोज अपने भोगनादिह से करीब 3 किलोमीटर दूर ‘पंचकठीया’ नाम की जगह पर दूध लेकर जाते थे. वहां के बंगाली महाजन और सेठ साहूकार उनके ग्राहक हुआ करते थे. ये महाजन उसी ‘स्थायी बंदोबस्त’ की उपज थे, जिसको अंग्रेजों ने लागू किया था.

इसकी मदद से वह खूब फूले-फले.

असल में फसल अच्छी नहीं हो पाने पर भी किसानों को लगान देना पड़ता था. ऐसी स्थिति में वे कर्ज़ लेकर लगान चुकाते थे. कभी-कभी तो उन्हें घरेलू कामों के लिए भी कर्ज़ लेना पड़ता था. अब चूंकि, कर्ज  लौटाने की शर्त अक्सर ऊंची होती थी, इसलिए जरूरतमंदों की मज़बूरी का फायदा उठाकर ये साहूकार उनसे सादे कागज़ पर अंगूठे के निशान लगा लेते थे.

बाज में जब आदिवासियों के पास लौटाने के लिए पैसे नहीं होते थे, तो वह वसूली के लिए जाते और उनके साथ दुर्व्यवहार करते. कई बार तो वह उनकी हत्या तक कर देते थे. गजब की बात तो यह थी कि स्थानीय शासन भी उनकी ही पैरवी करता नज़र आता था.

दारोगा महेश लाल दत्त का आतंक!

आदिवासियों के साथ साहूकारों की बर्बरता का एक खास साथी था.

उसका नाम था महेश लाल दत्त, जोकि पंचकठीया तहसील का थानेदार था. कहते हैं कि औरतों के साथ उत्पीड़न के मामले में वह सबसे आगे रहता था. यही नहीं आदिवासी जब भी ‘पंचकठीया’ बाजार में अपने रोजमर्रा की चीजें खरीदने-बेचने जाते, तो उन्हें महेश लाल के आतंक का सामना करना पड़ता.

एक दिन सिद्धू कान्हू ने अपनी आंखों से यह नजारा देखा तो उनका खून खौल उठा. उन्होंने  विद्रोह का मन बना लिया. वह सक्रिय हुए तो उनके छोटे भाइयों चाँद और भैरव भी उनके साथ हो लिए. सिद्धू कान्हू अभी किशोर ही थे. ऐसे में सवाल यह था कि संगठन बनाया कैसे जाए.

खैर, जल्द ही इसका हल निकला. गांव के ही कुछ आदिवासी युवकों ने नगाड़े और मांदर की थाप पर आसपास के सभी गांवों में ये सूचना पहुंचाई कि सिद्दू के सपने में ‘धरती आबा’ (आदिवासी कुलदेवता) आए थे. उन्होंने उससे कहा है कि आदिवासी भाइयों को इस शोषण से मुक्ति दिलाओ. चूँकि सभी आदिवासी क़बीले अंग्रजों, महाजनों और दारोग़ा महेश लाल के आतंक से तंग आ चुके थे, इसलिए वे तुरंत सिद्दू के साथ आ गए.

पंचकठीया से शुरू हुआ विद्रोह

पंचकठीया में 30जून की रात करीब 60,000 आदिवासी युवक जमा हुए. उनके हाथों में तीर कमान, दरांती, भाले और फरसा जैसे परंपरागत हथियार भी थे. सभी ने अपनी धरती को शोषण से मुक्त कराने का संकल्प लिया.

इस विद्रोह की खबर आग की तरह सारे क्षेत्र में फैल गई.

इसी कड़ी में दारोगा महेश लाल दत्त को खबर लगी, तो उसने पहले तो इस खतरे के लिए क्विसलेण्ड को तुरंत सूचित किया. क्विसलेण्ड जानता था कि अगर यह विद्रोह बढ़ा तो उसकी जड़ें हिल जाएँगी. इसी कारण उसने इसे तत्काल प्रभाव से कुचल की कोशिश की. उसने तुरंत दरोगा महेश लाल को आदेश दिया कि वह सिद्धू कान्हू को गिरफ्तार करे.

आदेश के तहत जैसे ही दरोगा पंचकठीया के मैदान पर पहुंचा. वह एकत्र आदिवासी उग्र हो गए. नजीता यह रहा कि उन्होंने ‘दरोगा महेश लाल’ की हत्या कर हमेशा के लिए उसकी कहानी खत्म कर दी. साथ ही ‘सन्थाल हुल’ की घोषणा कर दी.

महेश लाल की हत्या की खबर आग की तरह पूरे इलाके में फैल गई. आदिवासियों को लगा कि धरती आबा ने सिद्धू कान्हू को हमें आज़ाद करवाने के लिए भेजा है. बड़ी संख्या में आदिवासी युवक इनके साथ हो लिए और परंपरागत हथियारों के साथ धावा बोल दिया. उग्र भीड़ ने महाजनों के घरों पर हमला कर दस्तावेज़ जला दिए.

साथ ही कईयों को मौत दे दी.

इसके बाद आदिवासी सेना पंचकठीया से निकलकर साहेबगंज की ओर बढ़ी और रास्ते में शोषण का जो भी प्रतीक मिला उसे नष्ट कर दिया. इधर महेश लाल की सूचना के बाद अंग्रेज अफसर क्विसलेण्ड भी कप्तान मर्टीलो के साथ भागलपुर से सेना सहित विद्रोह को दबाने आ गया.

अंग्रेजी सेना को दिया मुंहतोड़ जवाब

आदिवासी विद्रोहियों के साथ क्विसलेण्ड की सेना वर्तमान पाकुड़ जिले के संग्रामपुर नाम की जगह पर टकराई. भीषण युद्ध हुआ. एक ओर आदिवासी जोश और उत्साह था, तो वहीं दूसरी ओर आधुनिक हथियार और तकनीक से लैस कुशल नेतृत्व वाली अंग्रेज़ी सेना.

शुरुआती लड़ाई में आदिवासी ही भारी पड़े, क्योंकि इनके नेता सिद्धू कान्हू जंगल और पहाड़ियों की सहायता से लड़े जाने वाले ‘गुरिल्ला युद्ध’ में माहिर थे. उन्होंने इसका जमकर फायदा उठाया और अंग्रेज़ी सेना को जमकर नुकसान पहुंचाया.

कैप्टेन मर्टीलो आदिवासियों की ताक़त समझ गया था, इसलिए उसने नई रणनीति के तहत इन आदिवासी विद्रोहियों को मैदानी इलाके में उतरने पर मजबूर किया. जैसे ही ये विद्रोही पहाड़ों से उतरे,अंग्रेज़ी सेना इन पर हावी हो गई.

अब लड़ाई बराबरी की नहीं रही, क्योंकि सीधी लड़ाई में विद्रोही अपने परंपरागत हथियारों के साथ आधुनिक हथियारों से सजी सेना का मुक़ाबला नहीं कर पाए. बड़ी संख्या में आदिवासी लड़ाके मारे गए. इसी कड़ी में 9 जुलाई को सिद्धू कान्हू के छोटे भाई चाँद और भैरव भी मारे गए. बावजूद इसके सिद्ध कान्हू का नेतृत्व विद्रोहियों पर भारी पड़ रहा था.

अगर मुखबिरी न हुई होती तो …

युद्ध अब व्यापक पैमाने पर फैल गया और झारखंड के पाकुड़ प्रमंडल के अलावा, बंगाल का मुर्शिदाबाद और पुरुलिया इलाका भी इसके प्रभाव में आ गया. सिद्धू कान्हू मजबूत स्थिति में थे,

इसी बीच इतिहास की घिनौनी सच्चाई रही मुखबिरी ने इस विद्रोह को भी खत्म कर दिया!

26 जुलाई 1855 की एक रात जब सिद्ध कान्हू अपने साथियों के साथ अपने गांव आए हुए थे और आगे की रणनीति पर बात कर रहे थे, तभी एक मुख़बिर की सूचना पर अचानक से धावा बोलकर अंग्रेज़ सिपाहियों ने दोनों भाइयों को गिरफ़्तार कर लिया. उन्हें घोड़े से बांधकर घसीटते हुए पंचकठीया ले जाया गया और वहीं बरगद के एक पेड़ से लटकाकर फाँसी दे दी गई.

सन्थाल हुल के नायक सिद्ध कान्हू ‘धरती आबा’ की गोद मे सदा के लिए सो गए, पर विरोध और आज़ादी का अंतहीन कारवां छोड़ गए.

आज भी पंचकठीया का वो बरगद का पेड़, पाकुड़ के पास रणस्थली संग्रामपुर और कैप्टेन मर्टीलो द्वारा पाकुड़ में बनाया गया मर्टीलो टॉवर, अंग्रेज़ी सत्ता के खिलाफ सिद्ध कान्हू की गौरव गाथा सुनाते हैं. इस लिहाज से ‘सिद्ध कान्हू’ आज भी जिंद हैं.

Editor

Editorial Team of Adivasi Resurgence.

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