मत-भ्रष्टता, सामाजिक विकृति एवं मनोवैज्ञानिक युद्ध (Subversion, Social Perversion and Psychological Warfare) – I
यह आलेख आने वाले दिनों में प्रकाशित होने वाले लेखों की श्रृंखला में ‘पहला’ है।
यह सारे शब्द सुनने में ही भयानक और गंभीर सुनाई पड़ते हैं। सुन कर लगता है कि जैसे कोई ऐसा विषय है जो सिर के ऊपर से पार हो जाए। सही है, विषय गंभीर और वैज्ञानिक है परन्तु किसी साधारण मनुष्य के समझ के परे हो ऐसा नहीं है। उलट, इन विषयों का अध्ययन किसी जान-साधारण के लिए ही होता है। जनसाधारण ही समाज का मूल अंग है – और समाज से जुडी बातें उस जनसाधारण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। मूल लेख झारखण्ड के परिवेश को लेकर लिखा गया था, पर लेख का केंद्र हर आदिवासी समाज के लिए प्रासंगिक है।
मत-भ्रष्टता (Subversion)
आखिर क्या है मत-भ्रष्टता?
“युद्धनीति, राजनीति का विस्तार है जो कि निरंतर जारी रहता है। जिन पर इस राजनीति का परिपालन होना हो अर्थात एक परदेशज समाज, उनसे सीधा युद्ध करना संसाधनों का दुरूपयोग और मूर्खता है। मत-भ्रष्टता उपाय है जिससे उस समाज के उपयोगी मतों को बदलना अधिक कारगर है क्योंकि एक समय आता है जब मत-भ्रष्ट परदेशज समाज तुम्हे शत्रु नहीं परन्तु अपना शुभ-चिंतक समझता है।“ – सुन त्जे (2500 BC)
मत-भ्रष्टता का इतिहास दो हज़ार पांच सौ इसा पूर्व (4500 years old) पुराना है – इसका मूल है चीनी दर्शनशास्त्री – सुन त्जे। हम सभी उसके “युद्ध नीति” से परिचित हैं। इसका पुनः जन्म रूस में बोल्शेविक क्रांति के दौरान हुआ और उसके बाद यह दर्शन रुसी (Communists) साम्यवादी दर्शनशास्त्रियों द्वारा अपनाया गया। इसे अंग्रेजी में (Subversion) सबवर्ज़न कहते हैं। आप सोचेंगे की साम्यवाद जैसे क्रांति पूर्ण दर्शन में क्या कमी हो सकती है? त्रुटियां यहीं से शुरू होती है – हम साम्यवाद का इतिहास तो पढ़ते हैं परन्तु इस वाद के समाज पर असर के इतिहास को कोई नहीं पढ़ाता।
मैं इस लेख में पूरे इतिहास को नहीं बता सकता – उसके लिए अलग लेख फिर कभी – बस इतना जाने की साम्यवाद विश्व के सबसे बड़े नर-संहार का कारण है जिसमे २ करोड़ से अधिक जान-साधारण की हत्या की गयी। मापदंड – यह संख्या हिटलर द्वारा की गयी नरसंहार से तीन गुना अधिक और भारत में अंग्रेजों के समय हुई मौतों से दुगुनी है। परन्तु इसपर कोई कभी टिपण्णी नहीं करता है।
वापस मुद्दे पर आते हैं: मत-भ्रष्टता इस आधुनिक युग में कैसे प्रासंगिक हुई?
अमरीका और सोवियत रूस के बीच शीत युद्ध के दौरान रुसी जासूस सिर्फ सैन्य जानकारी जैसे फाइटर प्लेन की संरचना, युद्धनीति इत्यादि नहीं चुरा रहे थे! 85% एजेंटों का काम कुछ और ही था – वह था मत-परिवर्तन!
मत-परिवर्तन दो तरह का होता है – सकारात्मक मत और विनाशकारी मत। एजेंटों का काम था अमरीकी समाज में विनाशकारी मतों का बीज बोना। यह मत आगे बढ़ कर विनाशकारी बनते हैं और इस तरह पूरी होती है मत-भ्रष्टता।
लोग आजकल की फिल्मों के रोमांच को सच मानते हैं जिसमे सोवियत एजेंट विलन है जो ब्रिज उड़ाने का प्लान बनता है या लेज़र सॅटॅलाइट से हमला करता है और जेम्स बांड जैसा हीरो एजेंट आखिर में सबको बचाता है। यह एक कल्पना है – मत-भ्रष्टता कोई छिपा हुआ विलन का प्लान नहीं है, यह खुले में रहता है – परन्तु इसे देखना आना चाहिए।
यह नीति सिर्फ तभी कार्य करती है जब मत-भ्रष्टा अर्थात एजेंट की बात सुनने के लिए और उसकी बातों को स्वीकार करने के लिए समाज तैयार हो। अमरीका ऐसा ही राष्ट्र था – अमरीका में स्वतंत्रता की परिभाषा सबसे स्वच्छंद थी – किसी को कुछ भी कहने की स्वतंत्रता, आत्म-रक्षा की स्वतंत्रता, पूँजी-निवेश की स्वतंत्रता – अतः कोई भी अपना मत समाज के सामने रख सकता था। सोवियत इसका पूरा उलट था – सोवियत रूस में पत्रकारिता सरकारी हस्तक्षेप से चलती है, इंडस्ट्री सरकार तय करती है, जन-साधारण सरकार पर टिपण्णी नहीं कर सकता था।
सोवियत एजेंटों ने अमरीकी समाज में सामाजिक, आर्थिक और दर्शनशास्त्र मतों के रूप में मत-भ्रष्टता के बीज बोन शुरू किये – इसका असर पुरे दो दशक बाद (८० के दशक से) शुरू हुआ। मत-भ्रष्टता में पलने बढ़ने वाला युवा वर्ग अपने समाज के स्तम्भों पर प्रश्न-चिन्ह लगाने लगता है और अपने समाज के सिद्धांतों को दमनकारी और पिछड़ा समझने लगता है।
सुन त्जे की युद्ध-कला कहती है मत-भ्रष्टता के आखिरी पड़ाव पर शिकार हुआ समाज भ्रष्ट हुए कु:मत को अपने समाज के स्थायी एवं कार्यकारी सिद्धांत के विरुद्ध एक विकल्प के रूप में देखने लगता है।
इन तथ्यों को पढ़ने के बाद अगर आपको संकेत दिखना शुरू होता है तो मेरा यह लेख कारगर है – परन्तु हर मनुष्य के लिए वैज्ञानिक अवलोकन पद्धति के अनुसार विवेचना संभव नहीं। खुले में कहदूँ ऐसी मेरी ऐसे मंशा नहीं परन्तु पूरा निरल छोड़ देना भी सही नहीं। इन निम्न-लिखित पंक्तियों को ध्यान दें:
१. झारखण्ड बने दो दशक होने को आया है। झारखण्ड बनने से पूर्व के शिक्षित आदिवासी समाज और आज के “शिक्षित-अग्रज” युवा वर्ग में एक अंतर है। अंतर की परिभाषा मुझे करने की जरुरत नहीं – आप विद्वान हैं।
२. शुभ-चिन्तकों की परिभाषा में उलट परिवर्तन हो चुका है।
३. शिक्षित-वर्ग और अशिक्षित-वर्ग की कृत्रिम खायी बढ़ाई जा चुकी है। सामाजिक मुखपत्र होने का ” गर्व” अब मुट्ठी भर लोगों के हाथ में है जो सबसे अधिक जानते हैं की समाज के लिए क्या सही है! सामाजिक विवेचना और विमर्श जो आदिवासी समाज की संरचना का स्तम्भ है उसे तोड़ कर एक विदेशी संरचना का पालन हो रहा है जहाँ “सामाजिक नायक” अधिक पूजनीय है।
४. धर्म आज एक ब्रह्मास्त्र है जिसे जब छोड़ दिया जाये, जहाँ छोड़ दिया जाए – विवाद की अग्नि का मशरुम बदल उठते देर नहीं लगता है। हर दल के नमूने मुर्ख चोंच लड़ाते हैं जबकि सोवियत सरीखे मत-भ्रष्टता के कारक एजेंट कोसो दूर खड़े हो मजे लेते हैं।
५. शिक्षा के सिद्धांत बदल चुके हैं जहाँ आदिवासी समाज आगे बढ़ने के स्थान पर “अहंकार” सीख रहा है।
अगले अंक में सामाजिक विकृति और मनोवैज्ञानिक युद्ध के बारे में चर्चा होगी.
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- “Dhumkudiya—an Adivasi dialogue series” invites papers for its Fourth conference - September 10, 2021
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