सोनभद्र: कोई नहीं चाहता कि आदिवासी अपनी ज़मीन पर चुनाव लड़े
सिद्धांत मोहन,
The article was originally published in TwoCircles.net, February 1, 2017 and can be accessed here.
ओबरा(सोनभद्र): संविधान की भाषा में आदिवासी से ज्यादा जनजाति शब्द प्रचलित है, और आरक्षण की भाषा में बात करें तो जनजातियां अनुसूचित हो जाती हैं. अभी भारत में आदिवासियों की संख्या में दिनोंदिन गिरावट आ रही है. इस नज़र को थोड़ा और कम करते हुए देखें तो उत्तर प्रदेश में आदिवासियों की संख्या में और भी ज्यादा गिरावट है. वे अब उत्तर प्रदेश के सोनभद्र और थोड़ा-बहुत मिर्ज़ापुर जिले में सिमट कर रह गए हैं.

इस साल चुनाव आयोग ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र सोनभद्र की चार विधानसभा सीटों में से दो को अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित कर दिया. यह दो सीटें हैं, ओबरा और दुद्धी. ओबरा की सीट का निर्माण साल 2012 के विधानसभा चुनाव में हुआ है और दुद्धी लम्बे वक़्त से विधानसभा सीट है. साल 1962 में दुद्धी की विधानसभा सीट को अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित कर दिया गया था. तब से लेकर बीती विधानसभा तक यह सीट अनुसूचित जाति के लिए ही आरक्षित थी. लेकिन चुनाव आयोग ने इस साल इस सीट को जनजाति के लिए आरक्षित कर दिया है. ओबरा विधानसभा सीट, जो कि बीते साल ही बनी है, अनारक्षित थी लेकिन उसे भी इस साल अनुसूचित जनजाति की सीट के लिए आरक्षित कर दिया गया है.

चुनाव आयोग के इस कदम के बाद साल भर से चुनाव की तैयारी कर रहे इन दोनों सीटों के सभी प्रत्याशी अचानक ही बाज़ार से गायब हो गए. आयोग के फैसले के खिलाफ धरना दिया गया. प्रदर्शन किए गए, रैलियां निकाली गयीं. यही नहीं, आखिरकार बौखलाहट में कई प्रत्याशियों ने समर्थकों के साथ मिलकर इलाहाबाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी है, जिसमें सीट को पूर्ववत करने की मांग है.
दोनों ही सीटों के छोटे-बड़े सभी प्रत्याशी खुलकर इस फैसले का विरोध कर रहे हैं और यह आस लगाए बैठे हैं कि उन्हें अदालत से राहत मिल सकती है. ऐसे में देखें तो दोनों ही विधानसभाओं में यह चर्चा आम हो गयी है कि कोई भी राजनीतिक दल और कोई भी प्रत्याशी यह नहीं चाहता है कि आदिवासी अपनी ज़मीन पर चुनाव लड़े.
दुद्धी की विधायक रूबी प्रसाद ने साल 2012 में निर्दलीय जीत दर्ज की थी. लेकिन दो साल बाद ही वे समाजवादी पार्टी में शामिल हो गयीं. चुनाव आयोग के इस फैसले के बाबत बात करते हुए वे कहती हैं, ‘चुनाव आयोग का यह आदेश मनमानी है. न कोई बिल लाया गया न अध्यादेश लाने की किसी प्रक्रिया पर कोई काम किया गया. लोकसभा या राज्यसभा में भी कोई बातचीत नहीं हुई. सीधे यह आदेश ला दिया गया, ऐसे में हम लोग कहां जाएंगे?’
खासकर दुद्धी विधानसभा सीट पर मामला अनुसूचित जाति बनाम अनुसूचित जनजाति का हो चला है. बातचीत में रूबी प्रसाद तो यहां तक कह जाती हैं, ‘इस फैसले से अनुसूचित जाति वाले लोग कहां जाएंगे? उनका हक क्यों मारा जाए?’ हालांकि इसके पीछे रूबी प्रसाद का नया-नवेला राजनीतिक करियर भी दांव पर लगा हुआ है. बातचीत में वह कह ही जाती हैं, ‘मैं 2012 में पूरे उत्तर प्रदेश से जीत दर्ज करने वाली अकेली निर्दलीय महिला विधायक हुई. मेरा तो पूरा करियर ही दांव पर लग गया.’

हालांकि अनुसूचित जातियों के हक में बात कर रहीं रूबी प्रसाद की जाति खुद सवालों के घेरे में है. रूबी प्रसाद पर आरोप है कि उन्होंने तहसील से अपना झूठा जाति प्रमाण-पत्र बनवाया है. यह बात अगर जांच में साबित हो जाती है तो रूबी प्रसाद का राजनीतिक करियर हल हाल में ख़त्म होना तय है.
बहरहाल, हम रूबी प्रसाद से पूछते हैं कि क्या तब आदिवासी को अपनी ज़मीन पर सत्ता में हिस्सा लेने का कोई हक नहीं मिलना चाहिए, तो वे अचकचा कर कहती हैं, ‘मिलना क्यों नहीं चाहिए? लेकिन आदिवासी भी हमारी मांगों का समर्थन करता है.’
पहले कई पार्टियों के सदस्य रह चुके विजय शंकर यादव ने हाल में ही अहिंसा सेवा पार्टी की नींव रखी है. उनके पोस्टर पर भगत सिंह की फोटो लगी हुई है. ‘सोनभद्र में खुले एम्स’ उनकी प्रमुख मांगों में से एक है. ओबरा में उनकी अच्छी-खासी पहचान है. वे कई मुद्दों पर प्रदर्शन और जनचेतना कार्यक्रम चलाते रहते हैं. चुनाव आयोग के ऐलान के पहले तक वे भी चुनाव की तैयारी कर रहे थे, लेकिन सीट के आरक्षित होते ही वे शांत बैठ गए. शांति बहुत दिनों तक नहीं रही, उन्होंने आयोग के फैसले के खिलाफ प्रदर्शन किया और अब वे भी अदालतों में दाखिल याचिकाओं के फैसले का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं. वे कहते हैं, ‘सन 62 से दुद्धी विधानसभा आरक्षित थी और ओबरा सीट तो पिछले साल ही बनी थी. चुनाव आयोग तो देखने नहीं आया कि आरक्षित सीट पर क्या हो रहा है? अलबत्ता आयोग ने आरक्षण को ही पलट दिया. ओबरा विधानसभा को आरक्षित करने का क्या मतलब था? यहां तो अधिकतर शहरी रहते हैं, कितने आदिवासी रहते हैं कि अनुसूचित जनजाति को सीट दी जाए?’
वे आगे कहते हैं, ‘असल में तो चुनाव आयोग को आरक्षित सीट का सर्वे कराना चाहिए. इतने साल से जो लोग राज कर रहे हैं उन्होंने क्या काम किया है? जाति विशेष को कितना लाभ मिला है? लेकिन चुनाव आयोग ने गैरसंवैधानिक तरीके से फरमान जारी कर दिया है.’
हम विजय शंकर यादव से भी यही सवाल पूछते हैं कि क्या तब आदिवासी को सत्ता में हिस्सा लेने का कोई हक नहीं, तो विजय शंकर यादव कहते हैं, ‘हां, आपका कहना सही है. लेकिन देवरिया ला ललितपुर में भी तो आदिवासी हैं, वहां चले जाते. यहां ही क्यों?’
ओबरा में जनजातीय प्रत्याशी कौन होगा, इस पर अभी बात नहीं बन सकी है. दुद्धी के सात बार के विधायक विजय सिंह गोंड अपने बेटे के लिए ओबरा विधानसभा के टिकट के लिए जोर लगा रहे हैं और खुद दुद्धी से लड़ने के लिए तैयार बैठे हैं. बीते चुनाव में विजय सिंह गोंड के साथ मिलकर चुनाव लड़ने वाली रूबी प्रसाद ने इस बार मान सिंह गोंड को जनजातीय प्रत्याशी के तौर पर सुरक्षित रखा है. लेकिन हास्यास्पद स्थिति और व्यक्तिपूजा की हद यह है कि जनजातीय प्रत्याशी मान सिंह गोंड बातचीत में बताते हैं, ‘हम चाहते हैं कि कोर्ट आयोग के फैसले को गलत साबित करे और रूबी मैडम को फिर से क्षेत्र की सेवा करने का मौक़ा मिले.’
मैं उनसे कहता हूं, यदि मैं यह लिख दूं कि जनजातीय उम्मीदवार ही कह रहा है कि जनजातीय आरक्षण से सीट को हटा दिया जाए तो मान सिंह गोंड कहते हैं, ‘हां, लेकिन हम लोग रूबी मैडम की छत्रछाया में आगे बढे हैं, जो उनको सही लगेगा, वह हमें भी मंज़ूर होगा.’
दुद्धी में मौजूद अमवार और बघाडू गांवों के आदिवासियों और निवासियों के पास भी कोई विकल्प मौजूद नहीं है. 35 वर्षीय राजू बैगा कहते हैं, ‘अब विजय जी(विजय सिंह गोंड) यहां आत रहे. अबका चुनाव में फिर आए. मैडम जी(रूबी प्रसाद) भी आयी रहीं. आदिवसिये को ओट देना हो तो गोंड को जाएगा, गोंड सबसे ज्यादा भी है.’ 22 साल के नसीमुद्दीन भी कहते हैं कि इलाके में विजय सिंह गोंड ज्यादा दिखते हैं, लेकिन कोई और आदिवासी प्रत्याशी नहीं दिख रहा है, जिसके बारे में सोचा जाए.
चुनाव आयोग के इस फैसले का स्वागत भी किया जा रहा है. आदिवासी एक्टिविस्ट और समाजवादी विचारक नरेंद्र नीरव कहते हैं, ‘आदिवासी की ज़मीन पर रहो, खाओ, कमाओ और बस जाओ. लेकिन ये नहीं मंज़ूर कि आदिवासी ऊपर राज करे. ये कैसी बात है भाई? इन लोगों का प्रतिरोध मूर्खता है. ऐसे तो आदिवासी वोटर इनसे दूर चला जाएगा. सीट को जनजाति को देने का यह कदम आज उठाया गया है, लेकिन इसे बहुत पहले ही उठा लेना चाहिए था.’
फिलहाल इस मामले में दो सुनवाई हो चुकी है और आखिरी सुनवाई 2 फरवरी को होनी है. सूत्रों का कहना है कि चुनाव आयोग सुनवाई के दौरान लेट-लतीफी कर रहा है, लेकिन जनजातीय आरक्षण से मुंह मोड़ना भी कोर्ट के लिए इतना आसान नहीं है. वोटरों और लोगों की मानें तो आदिवासियों के आंगन में यह कदम बहुत पहले उठ जाना चाहिए था लेकिन आदिवासियों के मुख्यधारा में आने से जुड़ी ग्रंथि बड़ी होती जा रही है, वरना ऐसे ही सभी प्रत्याशी इस प्रश्न का जवाब देने में असहज नहीं होते कि ‘क्या आदिवासी अपनी ज़मीन पर सत्ता का कोई हक नहीं?’
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