सीएनटी/एसपीटी एक्ट में किए गए संशोधन और उनके सामाजिक और पर्यावरणीय परिणाम
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छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी)/संताल परगना काश्तकारी अधिनियम (एसपीटी) एक्ट में हाल में किए गए संशोधनों का झारखंड राज्य में बड़े पैमाने पर विरोध हो रहा है। लाखों लोग, जिनमें स्कूली बच्चे भी शामिल थे, अपना गुस्सा और नाराज़गी ज़ाहिर करने के लिए सड़कों पर उतरे, जिसके जवाब में सरकार ने प्रदर्शनकारियों का ज़ोरदार दमन किया और लगभग 9000 लोगों को हिरासत में भी लिया, जो ज़्यादातर छात्र थे। इस विरोध की वजह सीएनटी एक्ट के अनुच्छेद 21, 49 और 71, और एसपीटी एक्ट के अनुच्छेद 13 में किए गए बड़े बदलाव हैं। मुख्य तौर पर, इन संशोधनों से आदिवासियों की भूमि का व्यावसायिक प्रयोग करना और कृषि भूमि का गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए अधिग्रहण करना मुमकिन हो जाएगा, और मुआवज़े के बदले होने वाले भूमि हस्तांतरण पर रोक लग जाएगी। एक्ट में किए गए संशोधनों के कारण साफ हैं: भूमि अधिग्रहण के खिलाफ आदिवासियों के प्रतिरोध के चलते कम्पनियों के साथ किए गए 100 से ज़्यादा समझौतों के ज्ञापन (एमओयू) अटके हुए हैं; रियल इस्टेट का बाज़ार ठण्डा पड़ गया है क्योंकि खरीददार सीएनटी/एसपीटी एक्ट के तहत आने वाली जमीन के मनचाहे इस्तमाल में आने वाली बाधाओं से बचना चाहते हैं; और छोटे व्यापारी न्यायिक कार्यवाही से खुद को सुरक्षित करना चाहते हैं, क्योंकि उनके ज़्यादातर होटल, दुकानें, फ्लैट, स्कूल और हस्पताल आदिवासियों की ज़मीनों पर बने हुए हैं। इनमें से ज़्यादातर दुकानदार भाजपा के समर्थक और दानकर्ता भी हैं, जो सीएनटी/एसपीटी एक्ट की बला टलवाने के लिए सरकार पर निरंतर दबाव बनाए हुए थे। जब यह संशोधन लागू होंगे तो ज़मीन पर किया गया यह सारा गैर-कानूनी कब्ज़ा कानूनी बन जाएगा। इससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण है फरवरी 2017 में झारखंड में होने वाला वैश्विक निवेशक शिखर सम्मेलन, जहां आदिवासी भूमि और अस्मिता को नीलाम किया जाएगा, और जिसके लिए यह संशोधन ज़मीन तैयार करेंगे।
मुख्य मंत्री का दावा कि भूमि के व्यापारिकरण से आदिवासियों की उन्नति होगी, पूरी तरह से खोखला है। झारखंड पहले ही विकास परियोजनाओं के लिए 26 लाख एकड़ ज़मीन गवां चुका है, लेकिन आदिवासी अभी भी “असली विकास” से कोसों दूर हैं। ग्रामीण विकास मंत्रालय की 2004-2005 की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक़, पूरे देश में झारखंड राज्य में सबसे बड़े पैमाने पर आदिवासियों की ज़मीन गैर-आदिवासियों के हाथ में आयी। यहाँ 86,291 ऐसे मामले सामने आये जिनमें कुल मिला कर 10,48,93 एकड़ ज़मीन आदिवासियों के हाथ से निकल गयी। लेकिन इन आंकड़ो की मुख्य मंत्री को कोई परवाह नहीं, क्योंकि उनका उद्देश्य आदिवासियों के अधिकारों को सुरक्षित करना है ही नहीं। हाल ही का एक उदाहरण लें तो रांची एचसीएल, जिसने आदिवासियों से सैकड़ों एकड़ ज़मीन ली, ने उसका इस्तमाल न होने पर भी उसे वापस नहीं लौटाया, बल्कि इसके बजाये उसे व्यापारिक उद्देश्यों के लिए इधर उधर बेच दिया। एम. एस. स्वामीनाथन द्वारा तैयार किये गए एक मसौदे में एक चिंताजनक बात सामने आती है। उसके अनुसार तक़रीबन 85.39 लाख आदिवासी लोग विकास परियोजनाओं और औद्योगीकरण के कारण विस्थापित हो चुके हैं, जो कुल विस्थापित हुई जनसंख्या का 55.16 प्रतिशत है। विस्थापित हुए लोगों में 64.23 प्रतिशत का पुनर्वासन आज तक नहीं हुआ है। बड़े शहरों में दिहाड़ी मज़दूरी और घरों में नौकरानियों का काम करने वाले झारखंड के आदिवासियों की लाखों की संख्या अपने आप में ही बहुत कुछ बयान करती है। जिनको अस्मिता के साथ ज़िन्दगी गुज़ारने का हक़ मिलना चाहिए था, वो देश के उद्योगपतियों के लिए सस्ते मज़दूर बन कर रह गए हैं। इसलिए आदिवासियों की सामाजिक और आर्थिक उन्नति के सभी दावे ऐतिहासिक प्रमाणों के ख़िलाफ़ हैं, और एकदम खोखले हैं।
इन संरक्षित इलाक़ों में औद्योगिक घुसपैठ से यहाँ के पर्यावरण को अनियंत्रित क्षति पहुँचती है। एक बार घना जंगल नष्ट हो जाए तो उसे उसी जैव-विविधता के साथ दोबारा जीवित करना असम्भव होता है। यह जैव-विविधता सदा ही धरती के जीव जंतुओं और मानव दोनों को क़ायम रखने के लिए आवश्यक रही है । भारत के जंगलों का क्षेत्रफल यहां की कुल भूमि के क्षेत्रफल का मात्र 12 प्रतिशत है, जबकि उचित क्षेत्रफल कम से कम 33 प्रतिशत माना जाता है। लेकिन इसके बावजूद पर्यावरण, जंगल और जलवायु परिवर्तन की ज़िम्मेदारी रखने वाले केंद्र मंत्री निजी कंपनियों को पर्यावरण और वन्य अनुमतियाँ देने में लगे हैं । अप्रैल 2014 और मार्च 2016 के बीच मंत्रालय ने 34,620 हेक्टेयर वन्य भूमि औद्योगिक उद्देश्यों के लिए बाँटी, और 40,000 हेक्टेयर से भी ज़्यादा ज़मीन के लिए अंतिम अनुमति जल्द दिए जाने की सम्भावना है। अर्थव्यवस्था का विस्तार पर्यावरण की बलि चढ़ा के नहीं किया जा सकता, और इसका परिणाम हम सभी को भुगतना पड़ेगा।
अतः यह समझना आवश्यक है कि इन संशोधनों और इनसे झारखंड के समृद्ध होने के सभी खोखले वादों के पीछे की विचारधारा बाज़ारी कट्टरवाद है, जिसे पूर्ण सरकारी सहयोग प्राप्त है। यह संशोधन मानव अधिकारों, समता और न्याय के मूल्यों, और पर्यावरण के संरक्षण के प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन हैं। यह क्षेत्र आज भी जंगल और विविध जीव-जंतुओं के भंडार हैं। आदिवासियों और प्रकृति के बीच का यह सामंजस्य हज़ारों सालों से चला आ रहा है और आदिवासियों के गहरे प्राकृतिक और पारिस्थितिक ज्ञान का परिचायक है, जिस पर उनकी आजीविका, संस्कृति और पहचान निर्भर हैं। उनका प्रकृति को देखने का नज़रिया प्रज्ञावान है, और हज़ारों सालों से दैनिक जीवन में होने वाले प्राकृतिक सम्पर्क और अनुभव द्वारा, पीढ़ी दर पीढ़ी विकसित हुआ है। पिछले कुछ दशकों में पूरी दुनिया में आदिवासी समुदायों की प्राकृतिक संवेदनशीलता को पहचाना गया है।
तो यह साफ़ है कि आज भारत में जो थोड़े-बहुत, बचे-कुचे प्राकृतिक रूप से सम्पन्न इलाक़े रह गए हैं, जहाँ आदिवासी वास करते हैं, उन्हें बचाए रखने में ही समझदारी है। लेकिन इनका संरक्षण कैसे होना है, इसकी प्रक्रिया और साधनों के बारे में निर्णय लेने का हक़ केवल आदिवासियों का ही होना चाहिए, न कि किसी बाहरी ताक़त द्वारा उनपर नीतियाँ थोपी जानी चाहिए, जिनके कारण बाघों को बचाने के नाम पर आदिवासियों को अपनी ही ज़मीन से बेदख़ल कर दिया जाए। आदिवासियों के अधिकारों को प्राकृतिक संरक्षण के प्रश्न से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। आदिवासी दृष्टिकोण के ज़रिए ही उनके इलाक़ों के पर्यावरण की सुरक्षा के लिए नीतियाँ बनायी जानी चाहिए । हमें याद रखना चाहिए कि एक समय पर आदिम, भोलेभाले, हीन और असभ्य समझे जाने वाले लोग, आज की आपातकालीन परिस्थितियों में मानवता को नष्ट होने से बचाने के लिए महत्वपूर्ण विकल्प प्रदान कर रहे हैं। उनका सामाजिक और आर्थिक पिछड़ापन उन्हीं के परम्परागत पर्यावरण और जीवन शैली के दायरों में और उन्हीं के ज़रिए दूर किया जाना चाहिए, न कि उनको उनकी ज़मीन से बेदख़ल कर और उनके विचारों और आकांक्षाओं को अनदेखा कर के। सीएनटी/एसपीटी एक्ट में किए गए संशोधन आदिवासियों की स्वतंत्रता, समता और संप्रभुता के मूल्यों का उल्लंघन हैं, और आने वाले समय में पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व के लिए ख़तरा हैं । इन संशोधनों को वापस लिया जाना चाहिए, आदिवासियों की ख़ातिर और हम सभी की ख़ातिर ।
इस लेख का इंग्लिश से हिंदी में अनुवाद ‘सुरभी अग्रवाल’ (Research Scholar, University of Hyderabad) ने किया है. अंग्रेजी के लेख के लिए यहाँ क्लिक करें.