झारखंड के आदिवासियों के विकास का सच
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मैंने अपने माता पिता से सुना था कि जब वे लोग छोटे थे , झारखण्ड अलग राज्य आंदोलन में वे लोग भी झंडा लेकर सड़को में निकले थे और नारे लगाए थे “लड़ के लेबो झारखण्ड” “अबुआ दिशोम ,अबुआ राज”।
1947 से झारखण्ड आंदोलन में शामिल कई लोग नए ‘आदिवासी राज्य’ की आशा करते करते हुए दफ़न हो गए, मिटटी में मिल गए। लेकिन अपने जीवित रहते नहीं देख पाए। 53 वर्ष के लंबे समय के बाद 15 नवम्बर 2000 को झारखण्ड अलग राज्य बना। नए राज्य पाने की खुशियां मनाई गयी। मांदल, ढोल, नगाड़े बजे। आदिवासि खूब नाचे गाये, उत्त्सव मनाये। नया आदिवासी राज्य पाकर सभी लोग बहुत खुश थे। सभी की सोंच थी कि अब सब को रोजगार मिलेगा। सब का विकास होगा। सुख सम्पदा आएगी, सब ठीक हो जायेगा; लेकिन यह एक दिवास्वप्न ही था। रेगिस्तान की मिर्चिका जो पानी की तरह दिखाई तो देती है लेकिन किसी की प्यास नहीं बुझा सकती।
राज्य अलग हुआ राज्य का मुख्यमंत्री ‘आदिवासी’ बना। सांसद और विधायक ‘आदिवासी’ भी आदिवासी थे, लेकिन कमान (रिमोट) किसी गैर के पास। कब तक आदिवासी समाज पिछलग्गुओं की तरह किसी और के इशारो में चलेगा? इन्ही कारणों से आज आदिवासी समुदाय की दयनीय स्थिति हुई है। किसी ने अपने समाज का नेतृत्व सही तरीके से नहीं किया, सिर्फ स्वार्थ सिद्धि में लगे रहे। गलती शायद हमारे लीडर्स की है। इन सोलह वर्षो में राज्य का विकास तो हुआ, लेकिन कहीं ना कहीं आदिवासी समुदाय हासिये में रहा। कभी नक्सल के नाम पर आदिवासियों की हत्या, कभी विकास के नाम पर उनकी जमीन छीनी गई और उनको विस्थापन झेलना पड़ा। खनन और उद्योग के नाम पर, उनकी कीमती जमीन कौड़ियों के भाव में खरीद लिए गए। आदिवासी सामाजिक जीवन की अर्थव्यवस्था, कृषि और जंगल पर निर्भर है लेकिन कृषि की दयनीय व्यवस्था और जंगल के कानून ने इन आदिवासियों को मालिक से मजदुर बना दिया। आदिवासी बेटियाँ अपने और अपने परिवार के पेट की आग बुझाने के लिए दिल्ली और अन्य महानगरो में तथाकथित सभ्य समाज के जूठन धोती रही, शारीरिक मानसिक शोषण का शिकार होते रहे। कुछ लोगों ने तो उन्हें किसी वस्तु की तरह गरम गोश्त के बाजार में भी फेक दिया और घुट घुट कर मरने दिया। आदिवासी रानी बिटिया को नोच डाला उन तथाकथित सभ्य समाज ने। आदिवासी समाज जहाँ लड़कियों और महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिया जाता है, लेकिन सभ्य समाज ने उन्हें मात्र भोग की वस्तु समझा। अभी हाल में ही छतीसगढ़ की एक राजनितिक दल की महिला नेता ने ‘आदिवासी महिलाओं’ को ‘वेश्या’ की श्रेणी में बताया था। एक महिला दूसरे महिला को कैसे ‘वेश्या’ कह कर संबोधितकर सकती है! वो इस लिए की वह आदिवासी है? ये गैर आदिवासियों की बेहद शर्मनाक और जातिवादी मानसिकता है।
झारखण्ड की पूरी आदिवासी आवाम आज ‘झारखण्ड सरकार’ से पूछना चाहती है कि उनके शासन काल में कितने प्रतिशत आदिवासियों का कल्याण हुआ? कितने स्कुल और कॉलेज बनाये गए? आज झारखण्ड के बड़े शहरो में बड़े-बड़े मॉल, काम्प्लेक्स और अन्य तरह के व्यवसाय खूब चल रहे हैं, ये किन की जमीन पर बनाये गए हैं? ये सब आदिवासियों की जमीन थी और इसके बदले में आदिवासियों को कुछ भी नहीं मिला। उलटे उद्योग और खनन के बहाने झारखण्ड के अनुसूचित क्षेत्रो में बाहरी लोगों का जमावड़ा होना शुरू हो गया। देश की आजादी के बाद और बिहार से पृथकीकरण हो कर नए आदिवासी बहुल राज्य बनने के 16 वर्षों बाद, सिर्फ बाहरी लोगों का विकास हुआ, लेकिन जिस मकसद से झारखण्ड अलग हुआ था वह मकसद अधूरा ही रह गया। आदिवासियों का प्रदेश झारखण्ड अब गैर आदिवासी लुटेरों का अड्डा बन गया है।
कहने को तो झारखण्ड एक आदिवासी बहुल राज्य है लेकिन आजादी के उन ७० वर्षो उपरांत भी आज तक आदिवासियों को उनके परम्परागत कानून को कोई मान्यता नहीं मिली। शेड्यूल एरिया एक्ट इस राज्य में कही नहीं दिखता और पांचवी/छठवी अनुसूची की तो कोई बात ही नहीं करना चाहता। ‘ग्रामसभा’ की पारम्परिक आदिवासी प्रशासन व्यवस्था ‘मांझी परगनैत’ जैसे पारम्परिक और संवैधानिक कानून की धज्जिया उड़ा दी गयी है। गुलामी के जिन कानूनों से अंग्रेजो ने आदिवासी समुदाय को मुक्त रखा था लेकिन आजादी के बाद सामान्य नागरिक के सभी कानून आदिवासी समाज पर लाद दिए गए। उस गफलत ने आदिवासी समाज को आजाद देश के गुलाम बना दिया जो उनके क्षेत्र से जल, जंगल और जमीन को उनके हाथों से 70 वर्षों से लूटते रहे और आज भी यह सामाजिक लूट निरंतर उन आदिवासी क्षेत्रो में लोकतंत्र के निर्वाचन और प्रशासन के नाम पर चल रहा है।
Photo Credit: Vikas Choudhary, via Down To Earth