आदिवासी हूं, मुश्किलों को चुनौती नहीं मानता और खुद को माओवादी कहे जाने से भी नहीं घबराता : बीजू टोप्पो
By: निराला
बीजू टोप्पो और मेघनाथ की जोड़ी को डॉक्यूमेंट्री फिल्म के निर्माता के तौर पर जाना जाता है. यह जोड़ी राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से लेकर कई सम्मान अपने नाम कर चुकी है. पिछले दो दशकों से फिल्मों के माध्यम से ये आदिवासी इलाके के हर उस विषय का दस्तावेजीकरण कर रहे हैं जिसे फिल्मों के लिहाज से आम तौर पर जरूरी नहीं समझा जाता. आदिवासी समुदाय से आने वाले बीजू पिछले दो दशकों से अपने समुदाय के विभिन्न मुद्दों को इन डाॅक्यूमेंट्री फिल्मों के रूप में दुनिया के सामने ला रहे हैं. फिलहाल उनकी नई फिल्म ‘द हंट’ चर्चा में है. बीजू टोप्पो से बातचीत.
आपने बीकॉम की पढ़ाई की है, पारिवारिक पृष्ठभूमि खेती-किसानी की है. फिर कैमरे से लगाव कैसे हो गया?
जब मैं रांची के सेंट जेवियर्स कॉलेज में पढ़ रहा था तभी से राजनीति और सामाजिक सरोकारों में मन रम गया था. रांची आया तो हमारे कुछ साथियों ने मिलकर पलामू छात्रसंघ का गठन किया. तब बिहार और झारखंड अलग-अलग नहीं थे. जब कॉलेज के हॉस्टल में रहता था तो मेघनाथ, महादेव टोप्पो, हेराल्ड टोपनो जैसे झारखंड के सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता अक्सर आते रहते थे. इनकी बातें अच्छी लगती थीं. पढ़ाई के दौरान ही मैंने 200 रुपये में एक कैमरा भी खरीद लिया था. यह हॉट शॉट कैमरा था. उसी वक्त झारखंड के फिल्मकार श्रीप्रकाश ‘किसकी रक्षा’ नाम से एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बना रहे थे. मैं उनके साथ डेढ़ माह तक रहा. अपने कैमरे से ब्लैक ऐंड व्हाइट तस्वीरें भी लेता रहा. बाद में लोगों ने देखा तो कहा कि शॉट अच्छा लेते हो, तस्वीरों की समझ है. पढ़ाई खत्म हुई तो सीधा मेघनाथ के पास चला गया और तब से हम साथ ही काम करते हैं. तब मुझे ज्यादा पता नहीं था लेकिन इतना समझ गया था कि कैमरा एक बहुत सशक्त माध्यम है और इसके जरिए बहुत कुछ किया जा सकता है.
फिर पहली डॉक्यूमेंट्री कब बनाई और यह किस विषय पर थी?
1996 में पहली डॉक्यूमेंट्री ‘शहीद जो अनजान रहे’ बनाई. साहेबगंज जिले में बांझी गांव है, वहां पूर्व सांसद फादर एंथोनी मुर्मू रहते थे. वे अपने इलाके में साहूकारों से लड़ रहे थे. उन्हें मार दिया गया. फादर जब शाम तक लौटकर नहीं आए तो लोग उन्हें ढूंढ़ने निकले. जो लोग उन्हें ढूंढ़ने गए, उन्हें भी एक-एक कर शासन के लोगों ने मार दिया. कुल 13 लोग मारे गए थे. तब यह बिहार का इलाका था. इतने लोग मारे गए लेकिन कहीं कोई चर्चा तक नहीं हुई. उसी पर हम दोनों ने पहली फिल्म बनाई.
फिर तो आप लगातार फिल्में बनाते ही गए. आपने करिअर के रूप में डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माण को चुना. इनके निर्माण के लिए सरकारी फंड भी नहीं लेते. एक साधारण किसान परिवार से होने के नाते आर्थिक स्तर पर रोजमर्रा की मुश्किलों का कैसे सामना करते हैं?
मुश्किलों पर बात नहीं करनी चाहिए. जीवन में मुश्किलें न हों, संघर्ष न हो तो फिर जिंदगी कैसी. और फिर हम तो आदिवासी हैं. आदिवासी अपनी मुश्किलों का रोना कभी नहीं रोता. हां, किसान का बेटा हूं और मैं खुद किसान हूं. किसान के जीवन में जो परेशानी होती है, वह मेरे जीवन में भी रही है लेकिन कभी खेती करना नहीं छोड़ा. वह तो मेरा मूल पेशा है. एक बार अगर बरसात में खेती करने घर न जाऊं, खेतों में काम न करूं तो पिता जी का बुलावा आने लगता है. मेरे पिता हमेशा एक ही बात समझाते हैं कि सिनेमा बनाओ या कोई और काम करो. अपने समाज और समूह की बात करना और अपना मूल कर्म यानी खेती कभी नहीं छोड़ना. रही बात डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माण को करिअर के तौर पर चुनने की तो इसे करिअर जैसा सोचकर नहीं चुना. बस मुझे कैमरा एक सशक्त माध्यम लगा तो उसका साथी हो गया.
गांव की बात चली है तो अपनी पृष्ठभूमि के बारे में कुछ बताएं.
मैं मूल रूप से पलामू का रहने वाला हूं. पलामू प्रखंड के लातेहार जिले के एक गांव लुरगुमी का रहने वाला हूं. पिता जी किसान हैं. गांव में ही रहकर पढ़ाई की. सातवीं कक्षा में था तो एक स्कॉलरशिप के लिए चयन हो गया. फिर पास के ही बाजार महुआडांड़ में एक स्कूल में पढ़ने आ गया. वहां से मैट्रिक फिर सेंट जेवियर्स कॉलेज, रांची से बीकॉम और बीकॉम के आखिरी पेपर की जिस दिन परीक्षा हुई उस दिन से कैमरे के साथ हूं.
पिछले 20 साल के अपने फिल्म मेकिंग के करिअर में आपने आदिवासियों से संबंधित कई जरूरी सवाल उठाए लेकिन इस समाज के तमाम मसले आज भी दुनिया के सामने उस तरह से नहीं आ पा रहे हैं जैसा कि आने चाहिए.
करने वाले कर ही रहे हैं. ऐसा नहीं कि काम नहीं हो रहा है लेकिन इसके लिए आदिवासी समाज को भी जागरूक होना होगा. आदिवासी समाज के नव मध्य वर्ग के साथ दूसरी परेशानी है. वे भी दूसरे समुदाय के लोगों की तरह इंजीनियर, डॉक्टर जैसे अधिक पैसा कमाने वाले पेशों को चुन रहे हैं. यह अच्छी बात है लेकिन जो ठीक-ठाक घर से हैं, उनको अपने बच्चों को साहित्य, संस्कृति, मीडिया आदि में भी भेजना चाहिए या फिर भेजने को प्रेरित करना चाहिए. यही माध्यम है जो आदिवासी समाज को मजबूत बनाएगा. और ज्यादा नहीं, आठ-दस लोग भी हो जाएं तो देखिएगा कैसे स्थितियां बदल जाती हैं.
तो इसका मतलब आप मानते हैं कि आदिवासी समाज की बात दूसरे लोग नहीं कर रहे या जब आदिवासी ही करेगा तो ठीक से करेगा. आपकी क्या राय है?
नहीं, ऐसा नहीं है. दूसरे समाज के कई लोग भी हैं जो बहुत ईमानदारी से आदिवासियों की बात करते हैं और कर रहे हैं. मैं ऐसा नहीं मानता कि आदिवासी ही आदिवासी की बात करेगा. दलित ही दलित की बात करेगा लेकिन अगर इसी समाज के लोग आएंगे तो वे भोगे हुए यथार्थ के छोटे हिस्से को भी एक बड़े फलक के तौर पर लोगों के सामने ला सकते हैं. जैसे निर्देशक नागराज मंजुले का उदाहरण ले सकते हैं. उनकी फिल्म ‘सैराट’ कितनी चर्चा में है. मंजुले ने तीन ही फिल्में बनाई हैं. पहली ‘इस्तुलिया’, दूसरी ‘फंड्री’ और तीसरी ‘सैराट’. फंड्री का मतलब सुअर होता है. मंजुले को किसी ने फंड्री कहकर गाली दी तो उन्होंने फिल्म बनाकर जवाब दिया. अगर आदिवासी समाज से ऐसे लोग उभरेंगे तो सही तरीके से जवाब दिया जाएगा.
आपने कई फिल्में बनाई हैं. इनमें से कौन-सी आपके दिल के करीब है?
कैसे बताएं. सभी फिल्में तो अंतर्मन से ही बनाते हैं और सभी दिल और मन के करीब ही हैं, लेकिन ‘कोड़ा राजी’ डॉक्यूमेंट्री से हमेशा से एक अलग तरह का लगाव रहा है. 2001 की बात है. मैं अपनी पत्नी और दो साल के बेटे के साथ उत्तर-पूर्व की यात्रा पर गया था. उन राज्यों में अपने कुछ परिजन रहते हैं तो उनसे मिलने की भी योजना थी. साथ में कैमरा रख लिया था. मुझे उत्तर-पूर्व की कोई जानकारी नहीं थी. पश्चिम बंगाल के अलीपुरद्वार स्टेशन पर उतरा तो एक साथी जो साथ गए थे, वे भी वहीं पर कुछ समय के लिए रुक गए. आगे असम के सुदूर इलाकों की यात्रा शुरू हुई. पत्नी के साथ बच्चा और पीठ पर कैमरा टांगे खाक छानते रहे. जिन परिजन के पास एक महीने पहले चिट्ठी भेजी थे, वहां चिट्ठी मेरे जाने के बाद पहुंची. यहां किसी तरह भूलते-भटकते असम के एक चाय बागान में काम करने वाले अपने परिजनों के पास पहुंच गए. यहां तकरीबन 22 चाय बागान बंद थे. मजदूरों की हालत दिल को दहला देने वाली थी. अधिकांश आदिवासी मजदूर थे. उनकी हालत कैमरे से शूट की. असम के डिगबोई में था तो वहां मालूम चला कि उसका नाम डिगबोई क्यों पड़ा. वहां मिट्टी खोदने के लिए जो आदिवासी बच्चे गए थे उन्हें अंग्रेज ‘डिग बॉय’ कहते थे. उसी से उसका नाम डिगबोई पड़ा. वहां चाय बागान में जब लोगों के गीत सुने तो लगा कि सारे गीत अपने गांव के हैं. कई गीतों में पलायन की पीड़ा है. फिर वहीं से उत्तर बंगाल के चाय बागानों का भी दौरा किया. असम से अपने इलाके में लौटा तो ऐसे मजदूरों को खोजने लगा जो दूसरे राज्यों से लाए जाते थे. लोहरदगा और हजारीबाग में ऐसे मजदूर मिल गए. इसके बाद पहली बार अपनी कुरुख भाषा में फिल्म बनाई, ‘कोड़ा राजी’. इस फिल्म को दुनिया भर में पसंद किया गया. अमेरिका के इमेज नेटिव में यह फिल्म गई. वहां कहा गया कि भारत से पहली बार किसी आदिवासी की बनाई हुई फिल्म आई है. नेशनल जियोग्राफिक चैनल ने इस फिल्म को लिया लेकिन वीएचएस फॉर्मेट में होने के कारण वह चल नहीं सकी. इस फिल्म को बहुत सारे सम्मान मिले.
आपने तो कुरुख भाषा में डॉक्यूमेंट्री ‘सोना गही पिंजरा’ भी बनाई है. उसके बारे में बताइए.
वह तो बस एक प्रयोग है. इस बात की तैयारी कि भविष्य में कोई फीचर फिल्म बना सकता हूं या नहीं. ‘सोना गही पिंजरा’ को अपने ही गांव में बनाया है. अपने गांव में देखता हूं कि नौकरी के चक्कर में लोगों को गांव छोड़ना पड़ा. पर्व-त्योहारों में उन्हें अपने घर आने की छटपटाहट रहती है लेकिन छुट्टी न मिल पाने के कारण वे नहीं आ पाते. तब मोबाइल एक सहारा बनता है. यह फिल्म इसी मुद्दे पर आधारित है.
डॉक्यूमेंट्री फिल्मों की स्क्रीनिंग की भी कम बड़ी समस्या नहीं है. आपके गांववाले आपकी फिल्में देखते हैं कभी?
हां, स्क्रीनिंग की समस्या है लेकिन पहले जैसी बात नहीं रही अब. अब तो ढेरों विकल्प और माध्यम खुल गए हैं. आज के 20 साल पहले तक लगता था कि हम किसलिए, किसके लिए फिल्में बना रहे हैं. अब तो शो भी होते हैं. यू-ट्यूब जैसे बेहतर विकल्प हैं. अब अलग बात है कि अमेरिका की तरह यहां डॉक्यूमेंट्री फिल्में सिनेमा हॉल में नहीं लगतीं लेकिन धीरे-धीरे दायरे का विस्तार हो रहा है. मैं अभी केरल के त्रिशूर शहर में गया था. वहां मेरी हालिया फिल्म ‘द हंट’ को सम्मानित करने के लिए मुझे बुलाया गया था. केरल में कुछ लोग मिलकर दो दिन का डॉक्यूमेंट्री फिल्मोत्सव करवाते हैं. इसमें स्कूल-कॉलेज के छात्र भाग लेते हैं और उन पर चर्चा करते हैं. यह माहौल अपने यहां अभी नहीं है लेकिन प्रतिरोध का सिनेमा के तहत होने वाले गोरखपुर फिल्मोत्सव, बनारस फिल्मोत्सव, पटना फिल्मोत्सव के जरिए धीरे-धीरे माहौल बन रहा है. रही बात मेरे गांव में अपनी फिल्में दिखाने की तो मैं गांववालों को हमेशा अपनी फिल्में दिखाता हूं. अपना प्रोजेक्टर लेकर चला जाता हूं. गांव के लोग चंदा करते हैं. जेनरेटर और साउंड सिस्टम मंगवाते हैं और मेरी फिल्म देखते हैं. जब अपने गांव के ही लोग नहीं समझ पाएंगे कि मैं कुछ कर रहा हूं और जो कर रहा हूं वह अपने समूह के लिए सार्थक है तो फिर पूरी दुनिया में फिल्म दिखाते रहने का क्या मतलब.
आपकी हालिया फिल्म ‘द हंट’ को कई सम्मान मिले हैं. इसके बारे में कुछ बताएं.
यह फिल्म माओवादियों को मारने के नाम पर सरकार द्वारा कुछ वर्ष पहले शुरू किए गए ऑपरेशन ग्रीन हंट पर आधारित है. इस ऑपरेशन का मकसद क्या था, यह बताने की कोशिश हमने इस फिल्म के माध्यम से की है. दरअसल इसका मकसद माओवादियों को खदेड़ना नहीं बल्कि उन इलाकों को खाली कराना था जहां लोग रह रहे हैं और जमीन के अंदर खनिज संपदा है. संपदाओं पर कब्जे के लिए माओवादियों का बहाना बनाया गया. सबसे बड़ी बात यह है कि माओवादियों के नाम पर आम आदमी किस तरह प्रताड़ित हुए यह देखेंगे तो आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे. झारखंड के सारंडा से लेकर छत्तीसगढ़ के बस्तर तक हजारों लोग अपने गांव नहीं लौट पा रहे. वे माओवादी नहीं हैं लेकिन अपनी जमीन से उखाड़े जा चुके हैं.
माओवादियों के बारे में क्या सोचते हैं?
मैं माओवादियों पर कई तरह की सोच रखता हूं. उनके बारे में अधिकांशतः यही कहा जाता है कि वे रास्ता भटक गए हैं. लेवी (एक तरह की रंगदारी) ही उनका मूल उद्देश्य है. आज तो कोई भी आठ-दस लोग मिलकर एक माओवादी संगठन बना ले रहे हैं. यह सही है, इससे इनकार नहीं लेकिन मैं पलामू इलाके का रहने वाला हूं. वह इलाका माओवादियों का गढ़ बाद में बना, पहले सामंतों का गढ़ था. मैंने देखा है बचपन में सामंतों का जुल्म. एक साधारण बस से यात्रा कीजिए तो सामंत के छोटे बच्चे पूरे रास्ते आम लोगों को भद्दी-भद्दी गालियां देते हुए जाते थे, कोई कुछ नहीं बोलता था. और भी न जाने कितने तरीके के जुल्म करते थे. आज तो यह कह सकता हूं कि सबसे बड़े सामंती इलाके में आज अगर वे बैकफुट पर आए हुए दिखते हैं तो उसमें माओवादियों की ही भूमिका रही है. रही बात लेवी की तो चलिए मैंने मान लिया कि माओवादी लेवी लेते हैं लेकिन आप बताइए तो आपके गांव में एक तालाब तक बनता है तो क्या सौ प्रतिशत पैसा तालाब में लगता है? ऊपर से शुरू होता है और चपरासी तक का कमीशन बंधा हुआ है. सब कमीशन लेते हैं. वह भी तो सरकारी लेवी ही है. उस सरकारी आतंक का विरोध उसी तरह क्यों नहीं होता. क्यों नहीं उसी तरह से बात करते लोग उस लेवी पर? मैं और विभाग की बात क्या करूं? सिनेमा में हूं. मैंने कभी सरकारी फंड से सिनेमा तो नहीं बनाया लेकिन कई साथी आते हैं, तो बताते हैं कि सिनेमा के लिए जो पैसा मिलता है, उसमें 30 प्रतिशत कट मनी पहले ही रख लिया जाता है.
मराठी फिल्मों के निर्देशक नागराज मंजुले को किसी ने फंड्री कहकर गाली दी तो उन्होंने फिल्म बनाकर जवाब दिया. फंड्री का मतलब सुअर होता है
आप माओवादियों के पक्ष में बात कर रहे हैं. आपको भी लोग माओवादी कहते हैं.
सुनने में आया है कि फेसबुक पर कुछ लोग लिख रहे हैं कि बीजू तो माओवादी है. अरबपति है. मैं यह सब तनाव लेता ही नहीं. सोशल मीडिया की दुनिया से दूर रहता हूं. साल भर में एक से दो बार फेसबुक खोलकर देख लेता हूं. रही बात मुझे माओवादी कहने की तो आदिवासी हूं तो खुद को माओवादी कहे जाने को लेकर हमेशा ही तैयार रहता हूं कि यह आरोप लगेगा. आदिवासियों को तो कभी भी माओवादी कह दिया जाता है. एक घटना बताता हूं. मध्य प्रदेश में गुजरात की सीमा से सटा एक कस्बा है अलीराजपुर. वहां हर साल आदिवासियों का एक सम्मेलन होता है. वह सम्मेलन देखने की इच्छा थी. वर्षों पहले हम अपने एक साथी के साथ सम्मेलन देखने गए. सम्मेलन में भारी भीड़ थी. हम बस स्टैंड की ही एक दुकान पर अपना सामान रख गए थे. सम्मेलन में हंगामा हो गया. इसके बाद अलीराजपुर में बात फैलाई गई कि माओवादियों की सभा है. सम्मेलन के बाद बस स्टैंड की दुकान पर अपना सामान लेने लौटे तो हमें घेर लिया गया कि हम माओवादी हैं. हम अपनी बात कहते रहे लेकिन लोग माओवादी कहकर घेरते रहे. किसी तरह मामला शांत हुआ. तो कहने का मतलब यह कि आदिवासी हैं तो हम पर तो कभी भी माओवादी होने का ठप्पा लग सकता है. इसे लेकर मैं परेशान नहीं रहता.
मेघनाथ के साथ मिलकर आपने ‘गांव छोड़ब नाही’ जैसी म्यूजिकल सीरीज भी बनाई. आप दोनों के बीच कभी किसी बात को लेकर विवाद हुआ है?
विवाद तो कभी नहीं हुआ, क्योंकि विषय को लेकर जितना तर्क-वितर्क करना होता है वह कैमरा लेकर मैदान में उतरने से पहले ही हो जाता है. बाद में एडिटिंग टेबल पर दोनों के बीच रस्साकशी होती है. वह जरूरी भी है तभी बेहतरीन काम हो भी पा रहा है. रही बात ‘गांव छोड़ब नाही’ सीरीज की तो इसे केपी शशि ने निर्देशित किया है. मेघनाथ दा ने गीत लिखे हैं और कुछ लोगों से लिखवाए भी हैं. हम सबने उसमें अपनी भूमिका निभाई है. यह तो दुनिया भर के आंदोलनकारियों के लिए, विशेषकर अपनी जमीन से उखाड़े जा रहे लोगों के लिए सूत्रगीत बन चुका है.
फीचर फिल्म बनाने का इरादा है?
हां है न! क्यों नहीं है. बनाएंगे लेकिन वह अपनी बात होगी. अपने लोग उसमें नायक होंगे. सब कुछ अपना होगा.
The article was originally published in Tehelkahindi Magazine, Volume 8 Issue 14, Dated 31 July 2016. The interview can be accessed here.
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