“बाज़ार न बंद है, जंगल तो नहीं”: कोरोना-लॉक डाउन में आदिवासी समाज

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“बाजार तो बंद आहे लेकिन जंगल बंद तो नखे नि” (बाजार बंद होने से क्या हुआ, जंगल तो खुला है). वन से जलावन के लिए लकड़ी लेकर आने वाली एक आदिवासी महिला के ये शब्द हैं. उन्होंने कोरोना वायरस के बारे मे सुना है और उन्हें उससे डर भी है पर लॉक डाउन से कोई फर्क नहीं पड़ा. उन्हें भूख से भी डर नहीं है क्योंकि जो ज़रूरतें हैं वो पूरी हो जा रही है, पहले की तरह.

अभी इस लॉक डाउन के समय, मैं अपने घर में हूं. फंस गयी हूं या छिप गयी हूं यह तय करना तो मेरे अख़्तियार में नहीं है. देश का मीडिया जाने. मेरा घर झारखंड के गुमला जिले में है. गुमला, रांची से करीब 93 किमी दूर पश्चिम की ओर स्थित है. यह झारखंड का एक ऐसा जिला है जहां लगभग 69% आदिवासियों की जनसंख्या है.

शुरुआत के एक-दो दिन अत्यंत व्याकुलता के साथ बीते. यह सोचते हुए कि गांव के लोग कैसे गुजारा करेंगे?  लग रहा था पहले जैसा समय अब नहीं रहा, हर गांव में बाजार अपना घर बना चुका है. मैं अपने बचपन के दिन याद करने लगी थी. यह कहते हुए कि उस समय अपने गांव में जीवन कितना सरल था. कोई भाग दौड़ नहीं, आराम से सुबह होती और दिन ढल जाता.

सुबह घर के काम में हाथ बंटाती फिर 5 किलोमीटर दूरी वाले स्कूल चली जाती. 4 बजे शाम को स्कूल से वापस आ जाती थी.  स्कूल से वापस आते वक्त रास्ते में पड़ने वाले खेतों  के काम में लग जाती थी. काम हर मौसम के अनुसार अलग-अलग होता था. अगर खेत में काम नहीं है तो घर में शाम के लिए खाना बनाने की तैयारी करती थी और रात होने से पहले मां आकर खाना तैयार करती थी. मैं गांव के अन्य बच्चों के साथ नजदीक के ही किसी के भी बड़े टांड़ (खेत) में खेलने निकल जाती. ढेड़-दो घंटे खेलने के बाद घर वापस आती थी और ढिबरी या लालटेन के सामने पढ़ने बैठ जाती थी. हालांकि कुछ वर्ष बाद भाई और बहनों के जन्म होने से दैनिक गतिविधि बदल सी गयी पर साधारणतः बहुत खुशनुमा था समय.

उस समय बुनियादी ज़रूरतों के सामान घर में ही मिल जाते थे सिवाय किरोसिन तेल, नमक और हल्दी, नहाने और कपड़े धोने के साबुन (जो एक ही होते थे) बर्तन, बांस के बने दौरा, सूप, गारना, ओडिया इत्यादि. इनको खरीदने के लिए जरूरी नहीं था कि साप्ताहिक हाट ही जाकर लाया जाये. गांव में ही कोई विशेष व्यक्ति द्वारा पहुंचाया जाता था. रुपैया के बदले में धान या अन्य कोई भी फसल दाम के हिसाब से नापकर अदला बदली किया जाता था. घर में साल भर लगने के लिए पर्याप्त फसल होती थी और जो बच जाता था उसे हाट में बेच देते ताकि कुछ पैसा आ जाये.

ढहते हुए वैश्विक पूंजीवाद का विकल्प अभी भी आदिवासी समाज के पास है और जो दुनिया के लिए भी एक विकल्प हो सकता है और जिसके दो बहुत सामान्य सिद्धान्त हो सकते हैं – पहला ज़रूरत से ज़्यादा की ज़रूरत नहीं और जो भी ज़रूरतें हैं वो आस पास से पूरी हों.

उन पैसों का क्या करते थे बड़े लोग – अब याद नहीं. शायद हर 3-4 साल में हल जोतने वाले बैल या भैंस बदलने के काम में लाते थे या और कुछ आवश्यकता की वस्तुएं खरीदते थे. हां, पहनने वाले कपड़े और घर में रोशनी करने के लिए ढिबरी या लालटेन जरूर खरीदना पड़ता था. पहनने वाले कपड़े भी कितने होते थे बस दो जोड़ी. घर में पहनने के लिए एक और कहीं बाहर जाते वक्त के लिए एक. और इस तरह से जीवन आगे चलता.

यह 1990 के बाद की बात है. कुछ साल बाद मैं, “पढ़ना मतलब तरक्की करना” की सोंच लेकर गांव छोड़कर दूर निकल गयी, बहुत दूर. अब वापस गांव जाना और एक सप्ताह घर में बिताना कितना अलग लगता है. अब समझ आता है कि गांव कितना स्वावलंबी था और अब भी है, पर कितना? मेरे मन में इसको समझने की एक प्रबल इक्छा बनी रही. यह इसलिए भी रहा है क्योंकि देश की आर्थिक दशा अति नाज़ुक है. देश की आर्थिक नीति बदल गयी, जिसके कारण एक अलग तरीके की संस्कृति भी पैदा हुई. इस संस्कृति ने मानव सभ्यता से जुड़ी तमाम वस्तुओं और परिस्थितियों को लेकर कुछ अलग ही अर्थ सामने रखे. इसमें पैसे की एक अहम भूमिका पैदा हो गयी. इस नयी अर्थ-संस्कृति को समझने के लिए आदिवासी समाज भी पंक्ति में लग गया है. मैं भी इसकी शिकार हो गयी हूं. मुझे यह एहसास था कि इस इलाके के सभी आदिवासी भी इसके शिकार बन गए हैं.

पर ऐसा नहीं है, बाजार के प्रभाव से लोग अभी भी काफी दूर हैं जैसे कि इस विकट परिस्थिति में जो प्रतीत हो रहा है.

COVID-19 या कोरोना-वायरस से पूरा विश्व प्रभावित हुआ है और इस महामारी ने अब तक एक लाख से ज्यादा जानें ली हैं. भारत में भी मृतकों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 23 मार्च को देशव्यापी लॉक डाउन की घोषणा की और उसकी तैयारी के लिए एक दिन का भी समय नहीं दिया. इस अचानक लॉक डाउन ने एक बड़ी संख्या में नागरिकों को हाशिये पर धकेल दिया है, जिसमें ख़ासकर मजदूर वर्ग अपने-अपने घरों तक पहुँचने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

दिल्ली या अन्य शहरों में मजदूरों की दुर्दशा के समाचार और तस्वीरें दिल दहलाने वाली लग रही है. मैंने अपने आस-पास के लोगों और अपने रिश्तेदारों की खोज पड़ताल की तो पता चला कि जानने वाले कुछ ही युवा जो गांव छोड़कर शहर गए हुए हैं, सही सलामत है. कई अन्य समाचार भी सोशल मीडिया में दिखाये जा रहे हैं जहां कुछ लोगों को राशन की कमी है और उनके राहत के लिए कुछ लोग लगे हैं.

इस बात को सामने इसलिए रख रही हूं क्योंकि जहां अभी हूं मैं यहां लोग अपने दैनिक जीवन में इस लॉक डाउन की वजह से ज्यादा प्रभावित नहीं हैं. खरीफ फसल घर में आ चुकी है. जिसका ज़रूरत भर संचय है. इस मौसम की जितनी भी गतिविधियां हैं सब होते हुए दिख रही हैं. जलावन की लकड़ी की व्यवस्था करना, फुटकल का साग संग्रह करना, अपने बारियों (किचन गार्डन) में उग रही सब्जियों का पटवन करना, चावल बनाने के लिए धान उबालना, सरहुल के लिए अपने मिट्टी के घर की लिपाई -पुताई करना इत्यादि.

एक समाज का आत्मनिर्भर होना संभव है अगर जीवन से जुड़ी वस्तुओं और परिस्थिति को हम आदिवासी समाज के नजरिए से देख पाएं.

खुशी की बात यह है कि बारी में पैदा हो रहीं मौसमी हरी साग और कुछ विशेष पेड़ों के नए पत्तों के अलावे अलग-अलग मौसम में भंडारित खाद्य व्यंजन तरकारी के रूप में खाने को मिल रहे हैं.

समाचारों में और सोशल मीडिया में जो परिस्थितियां शहरी और महानगरीय जीवन की दिखाई जा रहीं हैं उनसे एकदम एक अलग सा माहौल यहां है. मुझे यह भी महसूस हो रहा है कि शायद प्रकृति के करीब और उस पर आश्रित ग्रामीणों के लिए यह लॉक डाउन बहुत मामूली सी ही बात है.

यह भी बताया जा रहा है कि सरकार की ओर से दो महीने का राशन मिलने वाला है परंतु अभी तक मिला नहीं है.

लॉक डाउन से यहां के लोग कम प्रभावित हैं और इस तथ्य की पुष्टि हेतु अपने आस पास झांककर देखने की कोशिश करते वक्त और आपसी सामुदायिक जीवन से जुड़े लोगों से बातचीत करते वक्त यह पता चल रहा है कि कुछ लोगों को मांस और महुआ (शराब) की कमी ज़रूर महसूस हो रही है. आवश्यकतानुसार हड़िया (घरेलू पेय पदार्थ) घर में बन ही जाता है.

अभी सरहुल पर्व का समय है जो इस बार सामुदायिक रूप से मना पाना असंभव है. अभी तक देश बंदी की यह समय सीमा बग़ैर अधिक परेशानी से बीत रही है.

इस तरह से आदिवासी समुदाय के घरों में सभी बुनियादी जरूरतें हमेशा की तरह मौजूद हैं. अगर किसी चीज़ की कमी खल रही है तो आराम की चीज़ें जिनके बिना जीवन बसर किया जा सकता है.

पूंजीवाद नामक कहर से इस इलाके के आदिवासी कुछ हद तक खुद को बचाए हुए हैं. निश्चित तौर पर इस विशेष समय में जहां मानव जीवन चलाने वाली वैश्विक व्यवस्थाएं चरमरा गईं हैं, हम आदिवासी समाज के गुजर बसर करने के तौर तरीके इनके सामने एक एक चिरस्थायी विकल्प बन सकता है.

एक समाज का आत्मनिर्भर होना संभव है अगर जीवन से जुड़ी वस्तुओं और परिस्थिति को हम आदिवासी समाज के नजरिए से देख पाएं.

ढहते हुए वैश्विक पूंजीवाद का विकल्प अभी भी आदिवासी समाज के पास है और जो दुनिया के लिए भी एक विकल्प हो सकता है और जिसके दो बहुत सामान्य सिद्धान्त हो सकते हैं – पहला ज़रूरत से ज़्यादा की ज़रूरत नहीं और जो भी ज़रूरतें हैं वो आस पास से पूरी हों. फिर से उस आदिवासी महिला की बात का तर्जुमा हिन्दी में करें तो वो मेरे बहाने पूरी दुनिया से यह कहना चाहतीं हैं कि बाज़ार न बंद है, जंगल तो नहीं.


यह लेख पहले Media Vigil वेबसाइट में प्रकाशित हो चुका है. यह लेख का सम्पादित रूप है.


फ़ोटो : EPW 

Elin Archana Lakra

Elin Archana Lakra is a post graduate in Social Work from TISS Mumbai. She is a native of Jharkhand and belongs to Oraon tribe. Elin has previously worked with various grassroots and civil society organisations. She is currently working with SRUTI - Society for Rural Urban & Tribal Initiative, based in Delhi.

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