गोटूल: माडिया-कोईतुर समाज और जीवन दर्शन को समझने का एक बहुआयामी केंद्र
- गोटूल: माडिया-कोईतुर समाज और जीवन दर्शन को समझने का एक बहुआयामी केंद्र - February 5, 2020
फ़ोटो : बस्तर में स्थित एक गोटूल (वेर्रिएर एल्विन, 1940)
गडचिरोली और माडिया (कोईतुर) आदिवासी पहचान बताते हुए शहरी लोगों की आँखें कांप उठती हैं. अगर यहाँ का जिक्र भी होता है तो उसे नक्सलवादी, दुर्गमता आदि की दृष्टि से देखा जाता है. इसके पीछे-पीछे गोटूल का जिक्र होता है. गोंड, माडिया आदिवासी समुदाय (जिन्हें “कोईतुर” नाम से भी जाना जाता है) की संस्कृति मतलब गोटूल और गोटूल मतलब मुक्त लैंगिक सम्बन्ध—बाहरी लोगों के मन में गोटूल के बारे में सिर्फ इतनी ही समझ है. इसका एक कारण यह भी है कि ब्रिटिश लेखक जैसे वेरियर एल्विन ने छतीसगढ़ के गोटूल का उल्लेख “नाईट क्लब/सेक्स सेंटर” नाम से किया था. इस उल्लेख से आदिवासियों की भावनावों को ठेस पहुंचती है. आदिवासियों के लिए गोटूल सिर्फ भौगोलिक ढांचा नहीं, बल्कि संस्कृति का एक पवित्र अंग है. यह सिर्फ नाचने गाने तक सीमित नहीं है बल्कि जीवन पद्धति, सामूहिक निर्णय प्रक्रिया का एक प्रगत नमूना है.
गोटूल, मध्य भारत के गोंड, माडिया, मुरिया आदि आदिवासी समुदायों के गांव के मध्य स्थान पर होते हैं. पर यह सिर्फ गाँव का सभागृह नहीं बल्कि सामुदायिक जीवन, सामूहिक निर्णय प्रक्रिया और लोक-सहभाग के अत्यंत रचना बद्ध तरीकों का एक जीवित उदाहरण है. पीढ़ी दर पीढ़ी सालों से चली आ रही आदिवासी समुदाय की यह अविभाज्य घटक है. गाँव के लोग यहां इकट्ठे होते हैं, चर्चा करते हैं, निर्णय लेते हैं, समस्याएं सुलझाते हैं, त्यौहार मनाते हैं. कोयतुर आदिवासी समुदाय में गोटूल अत्यंत पवित्र, विशिष्टपूर्ण और विकसित व्यवस्था है.
गोटूल शब्द की उत्त्पत्ति माडिया भाषा के “गोटिंग” शब्द से हुई है जिसका मतलब चर्चा करना होता है. चार लोग मिल गए तो चर्चा चालू होनी ही होनी है, परन्तु आम चर्चा और गोटूल में होने वाली चर्चा इन में एक महत्वपूर्ण भिन्नता है. गोटूल में लिया जाने वाला निर्णय सामूहिक रहता है, वो निर्णय सभी को मान्य होते हैं और सभी इन निर्णयों का पालन करते हैं. यहाँ होने वाले निर्णय की गाँव में सभी को मान्यता रहती है और गाँव के सभी लोगों को इन निर्णयों की जानकारी रहती है. इस प्रकार गोटूल में लिए जाने वाले निर्णय सभी को बंधनकारी होते हैं. त्यौहार मनाने, प्रथा परंपरा पालने, से लेकर, बुवाई लगाने के निर्णय गोटूल में लिए जाते हैं. इसमें पेरमा मतलब धार्मिक प्रमुख इसका मार्गदर्शन करता है. गांव का “कोतला” लोगों को इकठ्ठा करता है.

कभी–कभी यदि लोग खेतो में हों, और अचानक से निर्णय लेने की जरूरत हो, तब, कोतला गोटूल का ढोल बजा के लोगों को इकट्ठा करता है. इस ढोल के ताल, त्यौहार और लोगों को इकट्ठा करने में अलग-अलग होते हैं.
मध्य भारत में महाराष्ट्र का गडचिरोली, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में गोटूल मुख्य रूप से देखने मिलते हैं. इसकी रचना एक गोल खुले हुए सभा-गृह जैसी होती है. छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जिले के गोटूल में दो कमरे होते हैं. आगे का कमरा बैठक के में उपयोग किया जाता हैं और पीछे वाले कमरे में गाने के वाद्य, बर्तन आदि रखे जाते हैं. गाँव में रहने वाला पेरमा, सरकारी कर्मचारी, गांव के मेहमान वहां पे ही रहते हैं.
गोटूल आदिवासी समाज-संस्कृति की बहुत आयामी व्यवस्था है. गाँव के विकास और जात्रा-उत्सवों के बजट का निर्णय यहां लिया जाता है. गांव के प्रश्न यहां रखे जाते हैं. इसे सुलझाने के विविध मार्ग यहाँ ढूंढे जाते हैं. इस अर्थ में यह एक ग्राम सभा है. सामाजिक, सांस्कृतिक केंद्र है. शिक्षन–प्रशिक्षण संस्थान है. सामूहिक संवाद का माध्यम है. गांव के मेहमानों के लिए गेस्ट हाउस है. और गांव का कोर्ट भी है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह गांव के सामूहिक निर्णय का स्थान और लोकशाही का केंद्र बिंदु है.
पंचायत राज व्यवस्था और पेसा जैसे आदिवासियों के लिए संविधान के अंतर्गत विशेष कानून के बाद गांव के कारभार के लिए घटनात्मक मान्यता मिली एवं गोटूल का स्थान और भी अधिक मजबूत हो रहा है. फिलहाल गांव के सभी ग्राम-सभा की बैठक हम लोग करोभार में लेते है. पंचायत स्तर पर, गोटूल का इलाका सीमित होता है. हमारे भामरागड में पारंपरिक इलाके की गोटूल समिति गाँव में हैं. इस की मिटींग तालुका के समाज की जगह पर ली जाती है. इलाका में चार दिशा में चार कोतले होते हैं. इलाका समिति में लिए जाने वाले निर्णय कोतले गांव तक पूरी जानकारी पहुँचाते हैं और गोटूल में लिया गया निर्णय, आये हुवे प्रश्न इलाका समिति तक पहुँचाया जाता है. वहां गोटूल एक कम्युनिटी कम्युनिकेशन सेंटर की तौर पर काम करता है.
गोटूल के अच्छे गुणों के साथ ही साथ, इसका एक अवगुण भी है. जैसा कि, इसमें महिलाओं को स्थान नहीं हैं. देखा जाय तो आदिवासी संस्कति मात्रुसतात्मक हैं. विवाह के बाद लड़कियों को ससुराल की बजाय लड़के को अपने ससुराल में रहना पढता हैं कही गावं में यह प्रथा दिखाई देती है. कमारमुत्ते, जंगो यह स्त्री रूप में माडिया की देवता हैं. शायद नागरी समाज के प्रभाव से आये हुवे अवगुण में से यह एक हो सकता है. गोटूल के निर्णय प्रक्रिया के प्रमुख पेरमा, गायता पुरुष होते हैं. गोटूल की बैठक में गावं के पुरुष ही आते हैं. यह चित्र बदलने की जरुरत है और हम इसका निरंतर प्रयत्न कर रहे हैं. स्थानिक स्वराज्य संस्था में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की वजह से यह सम्भव हो रहा है.
सरकारें गोंड, माडिया जैसे आदिवासी समाज को विकास के प्रवाह में लाने की बातें करती हैं. परन्तु उनके लिए आदिवासी समाज की गोटूल पद्धति को अच्छे से समझ लेना आवश्क है. वह समझने के बजाय विकास की नागरी संकल्पना आदिवासियों को थोप दी जाती है. कोशिश करने के बाद कुछ भी सार्थक नहीं होता यह हम सभी के अनुभव हैं. आदिवासी विकास के नाम पर अरबों निधि खर्च की जाती है, किन्तु, इसमे से गोटूल जैसे सांस्कृतिक केंद्र को बढ़ावा देने की भी जगह होनी चाहिए. गोटूल में युवावो के लिए शिक्षन –प्रशिक्षण केंद्र शुरु होने चाहिए, इस दिशा से कोशिश करने की जरूरत है. यह ध्यान में ना लेते हुवे “समाज मंदिर” जैसी नागरी योजना आदिवासियों पर लादी जाती है. समाज मंदिर के निर्माण के लिए शासन लाखों करोड़ों की निधि देती है.
अनेक जगह पर अब गोटूल तोड़, उसकी जगह समाज मंदिर बनाये जा रहे हैं. “मंदिर” शब्द से हमें कड़ी निंदा है. जब गोटूल जैसी व्यवस्था अस्तिव में है, तो सरकार को गोटूल बनाने के लिए निधि देने की और इसका नाम बदलने, उसकी डिज़ाइन स्थानिक स्तर पर बदलने की अनुमति देने की जरुरत है. गाँव प्रमुख इस तरह गोटूल के माध्यम से गायता यह कारभार सँभालने वाला रहता है. शासन ने इसका नाम बदल के “पोलिस पाटिल” कर दिया है. नाम में पोलिस आने की वजह से इन पर नक्सलवादियों का ध्यान केंद्रित हो जाता है. उन्हें मानधन देना शुरू किया गया और पुलिस ने काम उन के पीछे लगा दिए, इस वजह से पोलिस के खबरी होने की वजह से बहुत सारे गांव के पोलिस पाटिल को नक्सलवादियों ने मार डाला. इस की बजाय गांव का पारंपरिक गायता अगर गांव के विकास के लिए कार्य करते तो आदिवासी बंधुवो की जान बचती.
गोटूल व्यवस्था के इतने अच्छे काम होने के बाद भी गोटूल पद्धति नष्ट करने के लिए पुलिस की यातनाएं हमेशा पीछे पढ़ी होती हैं. लहेरी पुलिस स्टेशन के भीतर आने वाला गोटूल बंद हो के वहां मिटटी की खंडर ही दिखती है. गोटूल में आदिवासी रात के समय इकट्टा होते थे. ढोल बजाते थे. पुलिस ने इकट्टा होने की बंदी के आदेश निकाले और यह सब बंद हो गया. हम लोग यह फिर से उभारने की कोशिश कर रहे हैं. परन्तु गोटूल फिर से चालू करना सिर्फ निर्माण करना नहीं है. लोगो को वही विश्वास और वही खुलापन मिलना चाहिए. खुले संवाद की, विचार विनिमय करने का पुराना वातावरण चालू होना बहुत मुश्किल पर जरुरी है.
स्थानीय विकास निधि से गोटूल निर्माण के लिए, पारंपरिक वाद्यं लेने की सिफारिश की जानी चाहिए. इस का प्रस्ताव मैंने गडचिरोली जिला परिषद के एक सदस्य के माध्यम से मैंने इसे समाज के सामने अनेक बार रखा. ग्राम स्वराज्य और गावं का विकास सही मायने में करना हैं तो गोटूल व्यवस्था, वहां की पारंपरिक रचना, सामुदायिक निर्णय प्रक्रिया, लोगों की भागीदारी प्रबंधन समझ लेना आवश्क है. गांव-गांव के गोटूल पर झंडा लहरायेगा एवं यह गोटूल गांव की जिम्मेदारी, विकास की, शिक्षा की, संस्कृति संरक्षण की और सशक्तिकरण के साधन बनेंगे तब आदिवासियों का सही रूप से विकास होगा, अन्यथा पुणे मुंबई जैसे शहरों के पास होकर संस्कृति नष्ट हो चुकी है. आजीविका के साधन गवांकर कातकरी समुदाय जैसे आदिवासी सिर्फ मजदूर बन कर रह जाएंगे, इन्सान नहीं.
यह लेख मूल रूप से दैनिक भास्कर के मराठी संस्करण में प्रकाशित हो चुका है.
लेख का मराठी से हिंदी में अनुवाद TISS, मुंबई में पीएचडी शोधार्थी दुर्गा मसराम ने किया है.