जीतराई हाँसदा की गिरफ़्तारी: आखिर क्या है आदिवासियों में गौ-माँस भक्षण की परंपरा?
कोल्हान विश्वविद्यालय के कोपरेटिव कॉलेज जमशेदपुर में कार्यरत जीतराई हाँसदा को साकची, जमशेदपुर पुलिस ने शनिवार (25 मई) को गिरफ्तार कर लिया है| हाँसदा को दो साल पहले के एक फेसबुक पोस्ट के आधार पर गिरफ्तार किया गया है जिसमें उन्होंने कहा था कि, संतालों में गौ मांस भक्षण की परंपरा रही है, और अन्य पक्षियों, जिसमें मोर भी शामिल है, का भी भक्षण किया जाता रहा है| ज्ञात हो कि आदिवासियों में विभिन्न प्रकार के जानवरों के मांस के उपयोग या सेवन की परंपरा (जिसमें बैल भी शामिल है) कोई नयी बात नहीं है |
(फोटो : The Quint)
जानकारी के मुताबिक हाँसदा पर भादवी की धारा – 153 (A), 295A, 505 के तहत जून 2017 में एफ. आई. आर. दर्ज किया गया था| जिसमें धार्मिक भावना को ठेस पहुँचाने, और शांति शौहार्द बिगाड़ने की बात कही गयी है; लेकिन जब 2017 में धार्मिक भावना को ठेस लगी थी, और शांति शौहार्द उस समय नहीं बिगड़ा था, तो अचानक से 2019 में चुनाव परिणाम के तुरंत बाद शांति शौहार्द कैसे बिगड़ने लग जाता है? इसमें स्पष्ट रूप से प्रशासन के दुष्प्रवृति की बू आती है?
हालांकि, प्रशासन का व्यवहार आदिवासियों के प्रति हमेशा से नकारात्मक रहा है इस पर जितना भी बोला जाये कम है| जीतराई हाँसदा को 2017 में महाविद्यालय से निकाले जाने के कोल्हान विश्वविद्यालय के फरमान के बाबत हांसदा के खिलाफ दर्ज शिकायत का विरोध करते हुए आदिवासी परंपराओं के संरक्षण के लिए काम करने वाली संस्था “माझी परगना महाल” के प्रमुख – दसमाथ हांसदा ने कॉलेज के वाइस चांसलर को पत्र लिखकर उनसे अनुरोध किया था कि सांप्रदायिक संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ए.बी.वी.पी.) की शिकायत के आधार पर उन्हें कॉलेज से न निकाला जाए|
(फोटो: वाईस चांसलर को लिखा गया पत्र)
जमशेदपुर के करनडीह (बागबेड़ा) गाँव में जन्में जीतराई बचपन से ही अभिनय के शौक़ीन थे| रांची विश्वविद्यालय के बाद नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा से थिएटर की पढाई करने के बाद रंगमंच पर जीतराई हाँसदा अपने रंग बिखेरते रहे हैं| हाँसदा जगह-जगह पर आदिवासी अधिकारों की बात करते रहे हैं, और ‘फेविकोल‘ (जो कि महिंद्रा एक्सीलेंस इन थिएटर अवार्ड्स 2013 के लिए सात वर्ग में नामित थीं), ”फुर्गल दिशोम रिन वीर को” जैसे नाटकों का निर्देशन, मंचन और उनमें अभिनय भी किया है|
आदिवासी समाज और समुदाय को समझने के लिए मानव के उद्भव सिद्धांत को समझना जरुरी है जिसमें कि मनुष्य कृषि का कार्य शुरू करने से पहले फल-फूल, कन्द-मूल, शिकार इत्यादि पर निर्भर हुआ करता था और वास्तव में अभी भी आदिवासी समुदाय काफी जगहों पर वन और वनोपज पर निर्भर है| हजारों सालों से चली आ रही मांस भक्षण, जिसमें गाय, बैल या भैस खाना भी शामिल है जो आदिवासी, दलित समेत अनेक समुदायों में बनी रही है| लेकिन यह एक धर्म की राजनीति से प्रेरित सोच का नतीजा है कि गत वर्षों में गाय के नाम पर आदिवासियों, दलितों, मुस्लिमों या अन्य अल्पसंख्यकों पर हिन्दू धर्म की नैतिकता को हिंसक रूप से थोपा जा रहा है| अब, आदिवासियों को ये भी सोचना है कि जब वह संगठित धर्म और उनके सिद्धांतों को स्वीकार करता है, इसका मतलब अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित पारम्परिक सिद्धांतों की मौत, और अंततः ये आपके और आपके समाज की सामूहिक मौत का कारण बन जाता है|
दरअसल संताल समाज में “जाहेर डांगरी” की पूजा बारह साल में एक बार होती है जिसमें बैल की बलि दी जाती है| इसमें त्योहार में पूरे गाँव के लोग शामिल होते हैं और मांस भी खाते हैं| झारखण्ड के गोंड लोगों में भी 12 साल में एक पूजा होती है जिसमें भैंस की बलि दी जाती है और इसी प्रकार की परंपरा खड़िया, उरांव और कोंध आदिवासियों में भी पायी जाती है|
आदिवासी रिसर्जेंस में प्रकाशित एक लेख में, नियमगिरी आंदोलन से जुड़े एक प्रमुख नेतृत्वकर्ता लोदो सिकोका कहते हैं “गाय पर्व हमारी संस्कृति का हिस्सा है। गाय पर्व के दौरान कई गांव मिलकर सामूहिक भोज का आयोजन करते हैं जिसमे गाय का मांस खाया जाता है। देश में गाय के नाम पर जो राजनीति चल रही है उसके प्रतिरोध में भी हम इसे जारी रखेंगे। वैसी आस्था जो हमारे जीवन में सम्मान और संतुलन स्थापित नहीं कर सकती, उसपर हमारा कोई विश्वास नहीं है। गौ मांस हमारे पर्व, त्यौहार, विवाह प्रक्रिया, भोज आदि से जुड़ा है। हम इसे कभी नहीं छोड़ सकते।”
इसलिए आदिवासियों की मांस सेवन की परंपरा—जिसमें बलि को जानवर का बलिदान की तरह नहीं—बल्कि एक खाद्य वस्तु को दिवंगत पूर्वजों के साथ साझा करने की परंपरा के तौर पर देखा जाना चाहिए और ये आदिवासियों का सांविधानिक अधिकार है| देखा जाये तो पूरे भारत में मांस सेवन की विभिन्नता पायी जाती है| गौ-मांस का भक्षण उत्तर पूर्वी भारत के अधिकांश ट्राइबल/आदिवासी समुदायों के मुख्य खाद्य पदार्थों में से एक है|
भारतीय जनता पार्टी के गृह राज्य मंत्री किरेन रिजुजू, जो खुद अरुणाचल प्रदेश के एक ट्राइबल समुदाय से हैं, ने तो यहाँ तक कह दिया था कि उन्हें गो-मांस खाने से कोई नहीं रोक सकता है| वही हिन्दू धर्मावलम्बी और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व वकील ‘मार्कण्डेय काटजू’ ने बीफ खाने को स्वीकार किया है| भारतीय जनता पार्टी के कदावर नेता और दिवंगत मनोहर पर्रिकर ने भी कहा है कि बीफ खाना या नहीं खाना किसी भी व्यक्ति का व्यक्तिगत चुनाव है| गौ-रक्षकों जैसे हिंसक असामाजिक तत्वों को उपजाने और बढ़ावा देने वाली ब्राह्मणवादी सोंच, और भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेताओं के यह बयान विरोधाभासी प्रतीत होते हैं|
इस तरह, एन.सी.ई.आर.टी. की पुरानी किताबों के लेखकों—जिन्होंने माँस भक्षण की बातों को ब्राह्मण| हिंदुत्व से भी जोड़ा है—पर क्या सबसे पहले प्राथमिकी दर्ज नहीं होनी चाहिए? जैसे कि—(i) ”पशुवों में गाय का स्थान महत्वपूर्ण था, क्योंकि लोग अनेक चीजों के लिए गाय पर निर्भर थे| वास्तव में विशिष्ट अतिथियों के लिए गो मांस का परोसा जाना सम्मान जनक माना जाता था| यद्यपि बाद की सदियों में ब्राह्मणों के लिए इसका सेवन वर्जित माना गया” (रोमिला थापर, प्राचीन भारत, कक्षा ६, पृष्ठ 38), (ii) “परन्तु इसके विपरीत वैदिक कर्मकांड के अनुसार यज्ञ में पशु अंधाधुंध मारे जाने लगे। यह खेती में बाधक सिद्द हुआ। असंख्य यज्ञों में बछड़ो और सांडों के लगातार मारे जाते रहने से पशु धन क्षीण होता गया। (रामशरण शर्मा, प्राचीन भारत कक्षा 11, पृष्ठ 99), (iii) संघ परिवार के खास विचारक जे. आर. मलकानी ने 11 नवम्बर 1966 को संघ के मुख्य पत्र “ऑर्गनाइज़र” में लिखा था कि कोई गाय अपनी मौत मर रही हो तो उसके माँस खाने में कोई परहेज नहीं। लेकिन, जहाँ तक आदिवासी समुदायों की बात है, बहुत सारे आदिवासी गाय की पूजा भी करते हैं, और कुछ खाते भी हैं लेकिन उनका आपस में कभी कोई विवाद नहीं हुआ है, फिर अभी के हालात में क्यों? एक “लोकतांत्रिक देश” में किसी को भी किसी के रसोई में, फ़्रिज में झाँकने का अधिकार नहीं है|
ध्यातब्य हो कि झारखण्ड सरकार ने आदिवासी परम्पराओं को दरकिनार करते हुए ‘झारखण्ड गोवंशीय पशुहत्या प्रतिषेध अधिनियम, 2005‘ लाया, जो कि 7 दिसंबर 2005 में कानून बन गया था| उस समय राज्य में मुख्यमंत्री श्री अर्जुन मुण्डा थे जो कि खुद एक आदिवासी हैं और मुंडा समुदाय से आते हैं| आदिवासी समुदाय से होने के बावजूद आदिवासी परंपरा के बारे में जानकारी नहीं होना दुःखद और निंदनीय भी है| वहीँ उस समय, 5 वीं अनुसूची के रक्षक झारखण्ड के राजपाल सैय्यद सिब्ते रजी थे और उन्होंने भी इस बिल को आदिवासियों के परम्परा को ध्यान में रखे बिना ही पास कर दिया| अनुसूचित जनजाति परामर्श दात्री परिषद् द्वारा भी आंख बंद करके अनुमोदन करना आदिवासी नेताओं और सदस्यों की अज्ञानता का सूचक है|
विभिन्न आदिवासी समुदायों में बलि (या दूसरे शब्दों में खाद्य पदार्थों को पूर्वजों से साझा करना) परंपरा रही है और इसे नकारा नहीं जा सकता है| इसलिए, संताल आदिवासी समुदाय के पारम्परिक स्वशासन व्यवस्था, जैसे ‘मांझी परगना’ और दूसरे अन्य आदिवासी समाज स्वशासन व्यवस्था को इसमें दखल देने की जरुरत है| 5 वीं अनुसूची को डा. बी. डी. शर्मा ने संविधान के अंदर संविधान कहा है और इस 5 वीं अनुसूची एरिया के सन्दर्भ में न्यायालयों द्वारा समय-समय पर विभिन्न प्रकार के आदेश दिए गए हैं जिसमे—स्वशासन, पारम्परिक और आर्थिक सशक्तिकरण, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की बात कही गयी है| झारखण्ड में आदिवासी अपने आप को होड़ और बाकि लोगों को दिकु कहते हैं| मतलब की दिकु अपनी जड़ें, 5 वीं अनुसूची इलाके में ज़माने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपना रहे हैं| भारत की संघीय संरचना में अलग-अलग जगहों की अपनी विशिष्टता है तथा 5 वीं अनुसूची इलाके में आदिवासियों पर, दिकु अपनी मर्जी नहीं थोप सकते| जिन्हें इस मांस से तकलीफ है वो इसे न खाएं, लेकिन जो खाना चाहते हैं (या यह खाद्य जिन समाज के संस्कृति का अभिन्न अंग है), उसे रोकना संविधानिक रूप से राइट टू फ़ूड का उलंघन है| साथ ही साथ यह ब्राह्मणवादी सोच द्वारा आदिवासियों पर की जा रही प्रणाली गत हिंसा का एक स्पष्ट उदाहरण है|
पिछले कुछ सालों में गौ माँस भक्षण को लेकर गिरफ्तारियां और हत्यायें बढ़ी हैं| झारखण्ड में इस अप्रैल में जुरमु गांव के एक आदिवासी के लिंचिंग की हिंसा इसका सबसे नया उदाहरण है| हाँसदा की गिरफ़्तारी को लेकर तमाम समुदायों तथा प्रगतिशील संगठनों ने पुरज़ोर विरोध किया है| साथ ही, आदिवासी समाज को अपने अस्तित्व और पहचान की लड़ाई को ध्यान में रखते हुए जीतराई हाँसदा की गिरफ्तारी के खिलाफ आवाज उठाने की सख्त जरुरत है, अन्यथा दिकुओं द्वारा आदिवासियों के ब्राह्मणीकरण की नीति सफल होती दिखेगी|
Quite true things elaborated through the post. Let’s strive for our society and culture. Till now we have been deprived of our social and cultural rights.