गाय-राजनीति और आदिवासी समुदाय : हर आदमी अपने ही पड़ोसी से डरा हुआ क्यों है?
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मृतक प्रकाश लकड़ा की तस्वीर के पास बैठे उनके भाई पीटर लकड़ा, ग्रामीण बीरबल तिग्गा और जिनका बूढ़ा बैल मर गया था आदियानुस। (फोटो : जसिंता केरकेट्टा)
झारखंड के सुदूरवर्ती गांवों में आदिवासी और गैर-आदिवासी लंबे समय से साथ रहते आएं हैं। वे भी, जो व्यवसाय व रोजी-रोजगार के लिए बाहर से आकर इधर बस गये हैं। वे यह भी जानते हैं कि आदिवासी गांवों में अधिकांश लोग गाय, सूअर, मुर्गी, बकरी आदि का सेवन करते हैं और खेेती के लिए काफी संख्या में गाय-बैल पालते हैं। गाय/भैंस का मांस या “बीफ” खाने को लेकर इन दोनों समुदायों के बीच इतने सालों में झारखण्ड में कभी ऐसे हालात नहीं बने कि उसने एक हिंसक रूप ले लिया हो। कुछ हद तक, सभी एक दूसरे के खान-पान, भाषा-संस्कृति से वाकिफ रहे हैं। हालांकि ऐतिहासिक रूप से हिन्दुओं ने इस “खान-पान” के तर्क पर सदियों से आदिवासियों को असभ्य, जंगली, पिछड़े जैसी संज्ञा भी दी है और सामाजिक अनुक्रम में उन्हें हमेशा सबसे नीचा माना है।
इसके बावजूद, गत वर्षों में आखिर ऐसा क्या हो गया है कि आदमी अपने ही पड़ोसी के खून का प्यासा हो गया है?
झारखंड के गुमला जिले के डुमरी ब्लॉक के जिस जूरमु गांव में 10 अप्रैल को गाय के नाम पर एक आदिवासी की हत्या हुई, उस गांव में उरांव, खेरवार, नायक, चिक बड़ाइक, लोहरा, घासी और साहु समाज के लोग लंबे समय से साथ रहते आये हैं। जुरमु से कुछ किलोमीटर दूर साहुओं की बस्ती जैरागी है। वहां कुछ आदिवासी परिवार भी हैं। लेकिन यहां इतने सालों में कभी किसी के खान-पान को लेकर कोई झगड़ा, बहस, या हत्या नहीं हुई है। 10 अप्रैल की घटना इस इलाके में पहली है जिसमें गाय के नाम पर किसी की जान गई हो।
यहां अब हर आदमी दूसरे समुदाय के लोगों को शक की नजर से देखने लगा है। आदमी, आदमी से डर रहा है। कुछ है जो भीतर ही भीतर टूट गया है, दरक गया है। शायद आदमी का आदमी पर से भरोसा।
जैरागी गांव में अक्सर बाज़ार लगता है। दूर-दूर के गांव के आदिवासी वहां साग-सब्जी ले कर पहुंचते हैं। साहु समाज के लोग भी अपनी चीजें यहां आदिवासियों को बेचते हैं । उनसे सामान खरीदते हैं। घटना के बाद से बाज़ार बंद है। सन्नाटा पसरा हुआ है। सिर्फ़ कमल छाप लिए भारतीय जनता पार्टी का झंडा हवा में लहरा रहा है। साहु समाज के युवा गांव से भागकर जंगलों में बैठे हुए हैं। दुकानों से कुछ बुजुर्गों को छोड़ सारे पुरुष गायब हैं और स्त्रियां दुकान संभाल रही हैं। हर आदमी गांव से गुजरने वाले नए चेहरे को डर और शंका से देख रहा है। सबके चेहरे पर तनाव है।

जिस ग्रामीण के मरे बूढ़े बैल को लेकर विवाद शुरू हुआ उनका नाम आदियानुस है। एदियानुस के अनुसार, जब नौ अप्रैल की शाम उनका बूढ़ा बैल घर नहीं लौटा तब 10 अप्रैल को वे उसे ढूंढने निकले। तो पास के दो मुहाना नदी में उसे मरा पाया। बैल काफी बूढ़ा था और चलने, फिरने में भी असमर्थ था। शंका थी कि पानी पीते हुए गिर पड़ा हो और फिर उठा नहीं। पास जाकर उसे मरा पाकर वे गांव लौट आए। आकर लोगों को सूचना दी कि उनका बैल नदी के पास मर गया है। जाकर उसका मांस बना लें। चार लोग प्रकाश लकड़ा, पीटर केरकेट्टा, जनवरिनियुस मिंज और बलासियुस तिर्की शाम को मांस काटने नदी किनारे गए। गांव के बच्चे और लड़के भी उनके आस-पास थे।
जुरमू छत्तीसगढ़ की सीमा पर है। मृतक के भाई पीटर लकड़ा बताते हैं कि 10 अप्रैल को छत्तीसगढ़ बाज़ार से लौट रहे एक टेंपू वाले—जो साहू है और जैरागी गांव से है—ने नदी किनारे लोगों को मरे बैल का चमड़ा निकालते हुए देखा। उसने ही जैरागी गांव के लोगों को ख़बर दी। फिर अंधेरा होने तक हथियार के साथ लोग आए और उन्हें मारते हुए अपने गांव ले गए। देखने वाले लड़के और बच्चे डर कर भाग गए और रात भर इधर-उधर ही छिपे रहे, घर नहीं लौटे। गांव के दूसरे व्यक्ति बीरबल तिग्गा कहते हैं कि रात अपने बच्चों को ढूंढने निकली गांव की महिलाओं ने देखा कि श्रीराम के नारे के साथ चार लोगों को पीटा जा रहा था।
जैरागी गांव के साहु समाज के एक युवक के अनुसार उन्होंने घायलों को थाने के पास वाले शेड में रात के करीब 11 बजे छोड़ दिया था। थाना में सूचना दे दी थी कि आपसी झगड़े में लोग घायल हुए हैं। लेकिन एक साहु बुजुर्ग बतलाते हैं कि जैसे ही टेंपू वाले ने खबर दी, वैसे ही गांव के कुछ लोगों ने हर घर से एक लड़के को बुलाया और मॉब तैयार किया। गांव में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था।
पुलिस को मामले की सूचना पहले ही दे दी गई थी लेकिन पुलिस ने घटना स्थल पर आने से मना करते हुए खुद ही स्थिति से निपट लेने को कहा। इधर, पुलिस के अनुसार घायलों में से एक की मौत अस्पताल में हुई, वहीं अस्पताल के डॉक्टर के अनुसार अस्पताल लाने से पहले ही प्रकाश लकड़ा की मौत हो चुकी थी। घटना के दो दिन बाद पुलिस ने गौ हत्या के आरोप में घायलों पर ही केस दर्ज किया था, जबकि जिनका बैल मरा था उनका कहना है कि घटना के 15 दिन बीतने पर भी उनसे कोई पूछताछ नहीं की गई और न ही उनका बयान लिया गया है।

लोगों ने बताया कि घटना के बाद किसी अख़बार ने उनसे संपर्क नहीं किया। लेकिन दूसरे दिन सभी प्रमुख अख़बारों ने इस मामले को अलग-अलग तरीके से लिखा। एक प्रमुख अख़बार ने तो यहां तक कह दिया कि आदिवासी मांस के बंटवारे को लेकर आपस में ही लड़ पड़े जिसमें एक की जान चली गई।
दरअसल यह घटना आदिवासियों के संसाधनों पर कब्जे के साथ-साथ उनकी संस्कृति पर हिन्दू धर्म के वर्चस्व के संघर्ष का हिस्सा भी है। आदिवासी संस्कृति पर लंबे समय से हमले हो रहे हैं, पर पहले यह बारीक और प्रच्छन्न तरीके से था, लेकिन अब यह खुलकर और अपने वीभत्स रूप में सामने आता दिख रहा है।
झारखंड में गौहत्या के शक में 2015 में दो मुसलमानो को ऐसे ही कुछ हथियारबंद लोगों ने मिलकर पेड़ पर लटका दिया था। इसी प्रकार ही विगत वर्षों में गाय-राजनीति को लेकर दलितों पर भी कई हमले हुए हैं। पिछले साल झारखंड के गढ़वा जिले में 19 अगस्त को इसी तरह छह आदिवासी परिवारों पर हमला हुआ था। उस दौरान 20 लोग घायल हुए और एक की मौत हो गई थी।
झारखंड में 86 लाख आदिवासी हैं और इसमें से एक बड़ी संख्या गौ मांस खाती हैं। सिर्फ झारखंड ही नहीं बल्कि पूरे देश के अधिकांश आदिवासी अपने भोजन में गाय, बैल, सूअर का मांस शामिल करते हैं। वे गाय, बैल का प्रयोग खेती में करने के साथ साथ उनका उपयोग खाने, बेचने, विवाह भोज, समारोह आदि में भी करते हैं। यह जीवन शैली आज से नहीं, सदियों से चलती आ रही है। गाय न सिर्फ उनके उनके जीवन का, बल्कि भोजन का भी अभिन्न हिस्सा है। उत्तर-पूर्व के राज्यों में भी ट्राइबल समुदाय द्वारा बड़े पैमाने पर गौ मांस का प्रयोग होता है। उनके भोजन से इसे अलग नहीं किया जा सकता। वहां कई ढाबे चलते हैं जहां गौमांस के साथ दूसरे मांस के व्यंजन उपलब्ध रहते हैं। जहां हिन्दू धर्म का अपेक्षाकृत कम प्रभाव है, जहां लोग अपनी संस्कृति को लेकर संगठित हैं, जहां गाय का मुद्दा राजनीति में घाटे का सौदा साबित हो सकता है, वहां इन तथाकथित गौ रक्षकों का कोई अस्तित्व नहीं है।
इन तथाकथित गौ रक्षकों के लिए गाय आज दूसरे समुदाय व उनकी संस्कृति पर वर्चस्व दिखाने और राजनीति करने का बड़ा हथियार बन चुका है। शायद उनके लिए इसका आस्था और धर्म से ज्यादा लेना देना न हो, मगर कई जगहों पर आदिवासियों के लिए गौ मांस का प्रयोग उनकी आस्था से भी जुड़ा है। मसलन ओडिशा के नियमगिरि की पहाड़ियों पर रहने वाले डोंगरिया कोंद, कुटिया काेंद आदिवासी ऐसी किसी चीज पर आस्था नहीं रखते जो उनके जीवन में किसी काम न आता हो। जो समय पड़ने पर उनकी भूख नहीं मिटा सके, उनका जीवन नहीं बचा सके। वे पहाड़, नदी, झरने, पेड़ की पूजा करते हैं। क्योंकि ये सभी उनका जीवन बचाने में मददगार हैं। इसी तरह वे गाय पालते हैं और उसकी भी पूजा करते हैं और उसका मांस भी खाते हैं।
नियमगिरि की पहाड़ियों पर कई गांव मिलकर साल में एक बार “गाय पर्व” मनाते हैं। इस दौरान गाय के मांस के साथ सामूहिक भोज का आयोजन होता है। नियमगिरि आंदोलन से जुड़े एक प्रमुख नेतृत्वकर्ता लोदो सिकोका कहते हैं “गाय पर्व हमारी संस्कृति का हिस्सा है। गाय पर्व के दौरान कई गांव मिलकर सामूहिक भोज का आयोजन करते हैं जिसमे गाय का मांस खाया जाता है। देश में गाय के नाम पर जो राजनीति चल रही है उसके प्रतिरोध में भी हम इसे जारी रखेंगे। वैसी आस्था जो हमारे जीवन में सम्मान और संतुलन स्थापित नहीं कर सकती, उसपर हमारा कोई विश्वास नहीं है। गौ मांस हमारे पर्व, त्यौहार, विवाह प्रक्रिया, भोज आदि से जुड़ा है। हम इसे कभी नहीं छोड़ सकते।”
लेकिन हाल के दिनों में देश में गाय के नाम पर कई हत्याएं हुई हैं। कई विश्लेषक मानते हैं कि यह सब कुछ हिन्दू वोटरों के ध्रुविकरण के लिए है। देश की 79.8 प्रतिशत आबादी “हिन्दू” के नाम पर चिन्हित होती है, और यदि धार्मिक प्रतीकों के आधार पर 30-35 प्रतिशत वोटों का भी धुर्वीकरण होता है, तो कोई भी पार्टी आसानी से चुनाव जीत सकती है। शायद राजनीतिक सत्ता के लिए ही हिन्दू प्रतीकों का इस्तेमाल हो रहा है।
ऐसे देश में जहां लोगों के खान पान, रहन सहन, भाषा-बोली में विविधता पर गर्व जताया जाता है, वहां यह “विविधता” एक हिंसक रूप लेती दिख रही है। वैसा हर आदमी जो किसी दूसरे समुदाय के लोगों के बीच है आतंकित महसूस कर रहा है।
इस विषय पर आदिवासी दर्शन का सन्दर्भ देते हुए छत्तीसगढ़ के कोयतुर आदिवासी ललित ओढ़ी बताते हैं, कि “आदिवासी समाज के हर समुदाय में लोगों को अलग अलग गोत्र या टोटम मिले हैं। इन गोत्रों में एक जानवर, एक पक्षी और एक वृक्ष शामिल है। प्रत्येक गोत्र के आदिवासी अपने गोत्र से जुड़े जानवर, पक्षी, पेड़ की हत्या नहीं करते। उनकी रक्षा का दायित्व उन पर होता है.” लेकिन “उनकी रक्षा के नाम पर वे दूसरे गोत्र के लोगों की हत्या कभी नहीं करते।”
Good work , for Aadiwasi.