लोकसभा चुनाव में डुवार्स तराई के आदिवासी, बागान श्रमिकों, के लिए क्या मुद्देै हैं दांव पर?
मुर्गा लड़ाई में मुर्गों की जिंदगी दाँव पर लगी होती है लेकिन मुर्गों के कल्याण हित की कोई बात नहीं होती है। न तो हारने वाला मुर्गा स्वास्थ्य रहता और न जिंदा । न जीतने वाला मुर्गा अपने लिए जीत कर राज पाट प्राप्त करता है, न हारने वाले की बहदुरी का कोई इतिहास बनता है। मुर्गों की लड़ाई में एक ही जात के दो मुर्गे के बीच न कोई दुश्मनी होती है और न उनकी लड़ाई में उन्हें कोई मनोरंजन मिलता है। बस अपने मालिक के मनोरंजन के शौक और जीतने की धुन में मुर्गों को लड़ना पड़ता है। यह कोई साधारण लड़ाई नहीं होती है, बल्कि दोनों के पैरों में कैंत बंधा होता है, लेकिन उन्हें इसके बारे वास्तव में कोई जानकारी नहीं होती है। वे तो जैसे बचपन से एक दूसरे से हँसी दिल्लगी से लड़ते रहे हैं वैसे ही वे एक दूसरे पर झपटते हैं। लेकिन मनुष्य के द्वारा बाँधी गई कैंत या चाकू उन दोनों का काम तमाम कर देता है। यदि वे न भी मरें तो भी ऐसे घायल हो जाते हैं, कि जिंदगी फिर पहले की तरह नहीं रह जाती है। लेकिन इस लड़ाई से मनुष्य का खूब मनोरंजन होता है।
डुवार्स तराई में लोकसभा चुनाव भी चाय मजदूरों के लिए एक मुर्गा लड़ाई बन गया है। चुनाव में न तो तृणमूल मजदूर (यहाँ मुर्गा पढ़ लें) की जिंदगी से संबंधित कोई बात कर रही है और न बीजेपी। दोनों फालतू के बाहरी बातों से डुवार्स तराई के लोगों को भड़काने और उनका ध्यान बाँटने में लगे हुए हैं। पिछले पाँच वर्षों में दोनों ने चाय मजदूरों के कल्याण के लिए पूरे मन से कुछ काम नहीं किया है। बस दिखावटी रूप से थोड़ी बहुत जबानी खर्च किए हैं और आज देखिए उन्हें मजदूरों के अमूल्य वोट चाहिए। मतलब उन्हें जीता हुआ मुर्गा चाहिए, भले ही मुर्गा घायल हो जाए, मर जाए या कुछ भी हो जाए, मालिक को तो जीत की खुशी चाहिए और मुर्गे का मांस भी चाहिए। वही मौज करने के लिए।
एक मजदूर को भारतीय आर्थिक व्यवस्था के लिए बने विभिन्न कानूनों के आधार पर और एक नागरिक के मानवीय अधिकार के रूप से न्यूनतम 350 रूपये से भी अधिक मजदूरी मिलनी चाहिए। एक संगठित उद्योग के स्थायी और स्किल्ड मजदूर के रूप में उन्हें एक महीने में 9 हजार रूपये से कम मजदूरी नहीं मिलनी चाहिए। साल में यह रकम 1 लाख रूपये से कुछ ज्यादा होता है। लेकिन उसे मिलता है सिर्फ 176 रूपये, जो वर्ष में 30 हजार रूपये से भी कम होता है। कानूनी अधिकारों, शोषणरहित न्यायपूर्ण जीवन स्तर के मूल्यांकन सूचकांक और देश के श्रमिकों के मूल्यांकऩ के राष्ट्रीय औसत के अनुसार एक श्रमिक को न्यूनतम 18 हजार रूपये मिलना चाहिए। सरकार द्वारा गठित वेतन आयोग ने इन्हीं सिद्धांतों के आधार पर सरकारी एमटीएस वर्ग के लिए वेतन निर्धारित किया है।
लेकिन तृणमूल भीख के बराबर मिलने वाले मजदूरी के बारे कहती है कि उसने लाल पार्टी राज के जमाने के 67 रूपये के मुकाबले 176 रूपये मजदूरी दिला रहे हैं और बहुत बड़ा मैदान मार लिया है, इसलिए मजदूरों का एकक्षत्र वोट उन्हें चाहिए। कोलकाता से नियंत्रित बाहरी पार्टियाँ इतनी बेशर्म और हरामी पार्टी हैं कि कठोर श्रम के बदले मिलने वाले न्यायपूर्ण पूरी मजदूरी के अधिकार को मान्यता देने की बात तो दूर भीख की तरह मिलने वाले मजदूरी को बहुत ज्यादा बता कर अपनी पीठ थपवाना चाहती है। एक भीखारी 5-6 घंटे में दो सौ रूपये से अधिक कमा लेता है। शहरों में दिहाड़ी मजदूर 50 केजी माल को एक किलोमीटर ले जाने के लिए 50 रूपये लेता है और सौ केजी माल को उठाने के लिए 150 रूपये कमा लेता है। इतने रूपये कमाने में उन्हें एक घंटा भी नहीं लगता है। दिन भर काम करने के बाद उन्हें 500-800 रूपये की कमाई हो जाती है। एक रिक्शा वाला दिन में 50 सवारी ढोने के बाद 700-1000 रूपये की कमाई कर लेता है। रेलवे स्टेशन में कमाने वाले मजदूरों की औसत कमाई 15 हजार रूपये है। जयगाँव, भुटान में मजदूरों को दिन भर के परिश्रम के लिए 600 रूपये मिलते हैं। लेकिन देखिए राज्य की सत्ताधारी पार्टी के लोग कहते हैं कि तुम्हें 176 रूपये तो मिलता है और तुम्हे क्या चाहिए ? इसी से संतुष्ट रहो, अधिक की मांग मत करो। मजदूरों के लिए उनके दिमाग में कितना हिकारत और घटियापन जमा है इसका कोई अनुमान नहीं लगा सकता। उनकी नजर में चाय मजदूर मनुष्य ही नहीं हैं।
बीजेपी भी मजदूरों के वोट पाने के लिए एडी-चोटी का जोर लगा दिया है। लेकिन दोस्तों यह पार्टी भी मजदूरों को कैंत बंधा हुआ मुर्गा ही समझता है। इन्हें लग रहा है कि मजदूरों को तृणमूल के विरूद्ध दिल्ली कोलकाता की बात बतला कर भड़का दो और वोट झिटक लो। बीजेपी के लोग प्रधानमंत्री समेत दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्री, बड़े-बड़े दूसरे नेताओं को वोट मांगने के लिए बुला रहे हैं। उन्हें चिट्ठी भेज रहे हैं और ग्राउण्ड रिपोर्टस् भेज रहे हैं। लेकिन पिछले पाँच साल में इस पार्टी ने कितनी चिट्ठी और रिपोर्टस् प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री, श्रम मंत्री, उद्योग मंत्री को लिखा ? इन मंत्रियों और उनके मंत्रालय को चाय मजदूर की जिंदगी के बारे संविधान में मिले अधिकारों का प्रयोग करके सुधारने का अनुरोध करने के लिए कितनी बार चिट्ठी लिखे। कभी उद्योग मंत्री बन कर निर्मला सीतारामन डुवार्स के चाय बागानों की सैर करके निकल गई। बड़ी-बड़ी भाषण दी कि मजदूरों को न्यूनतम वेतन से कम में काम कराना दंडनीय अपराध है। प्रधानमंत्री आए और बीरपाड़ा में बोल के गए तमाम बंद बागानों को केन्द्र सरकार अपने हाथों में लेकर खोल देगी। लेकिन सारे भाषण जुमलेबाजी सिद्ध हुई। यदि बीजेपी पार्टी ईमानदार, कर्मठ और चाय मजदूरों के प्रति समर्पित होती तो वह केन्द्र सरकार के वित्त मंत्री को पत्र लिख कर चाय मजदूरों के गबन किए गए 150 करोड़ प्रोविडेंट फंड के बारे कठोर कार्रवाई कराता। चाय मजदूरों के क्वार्टर के लिए केन्द्र सरकार के द्वारा दिए गए 66.66 प्रतिशत सहायता राशि के उपयोग पर रिपोर्ट तैयार कराता। बंद और रूग्ण चाय बागानों में करीबन एक हजार से अधिक लोग बीमारी, भूख और गरीबी से मर गए उस पर केन्द्र सरकार को हस्तक्षेप कराने के लिए लिखता और उस पर कोई उच्च स्तरीय कमेटी को चाय बागानों के अध्ययन के लिए बुलाता। बीजेपी चाहता तो केन्द्र सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय को बुलाकर एक बड़ा Employees State Insurance Corporation (ESIC) का अस्पताल बनवाता। केन्द्र सरकार के मंत्रालयों को समन्वय करा कर एक बड़ा प्रशिक्षण संस्थान बनवाता, जिसमें चाय बागान के बच्चों को Skills Training मिलता। बीजेपी चाहती तो चाय मजदूरों की समस्या को लेकर कोर्ट में जाता। यह पार्टी चाहती तो केन्द्र सरकार को बोल कर चाय मजदूरी और चाय उद्योग पर सुप्रीम कोर्ट के रिटार्यड न्यायधीश की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन करवाता। लेकिन वह ऐसा कभी कहीं करेगा।
तृणमूल और बीजेपी के बाहरी नेताओं को मजदूरों की किसी भी क्लासिकल गंभीर समस्या से कोई लेना देना नहीं है। ये दोनों पार्टियाँ मजदूरों को कैंत से बंधे मुर्गे की तरह एक दूसरे से लड़ाने में अधिक दिलचस्पी रखते हैं। उन्हें तो बस उसका वोट, उनका चंदा और समर्थन चाहिए। बीजेपी जानबुझ कर एक 9वीं पास व्यक्ति को एमपी बनाने के लिए चाय मजदूरों पर थोप दिया। यह करस्तानी चाय मजदूरों को कहाँ लेकर जाएगी ? क्या इससे चाय मजदूरों की जिंदगी में कोई सकरात्मक विकास होगा? वहीं तृणमूल एक ऐसे व्यक्ति को उम्मीदवार बनाया जो एमएलए रहते, मंत्री रहते और एमपी रहते कभी कुछ कार्य नहीं किया। MPLAD के 25 करोड़ को कहाँ खर्च किया उसका असली कागजात दिखा नहीं पा रहा है। नया क्या करेगा, उसका कोई पता नहीं।
दोस्तों दो शोषणवादी पार्टियों के अलावा भी चुनाव में और तीन होनहार उम्मीदवार आप सबों के सामने हैं। पार्टी की गुलामी से निकल कर आगे आईए और तीन अन्य उम्मीदवारों के गुण दोष पर विचार करके उन्हें अपना वोट दें। मिटिंग कीजिए, सामूहिक चर्चा कीजिए, लिखित रूप में वादा कराईए, और एक अच्छा उम्मीदवार को अपने वोट से संसद में भेजिए। उस पर आप जनता का नियंत्रण होगा। पैसे के पीछे मत भागिए।
शोषण करने वाली पार्टियों को वोट देने का मतलब है कैंत बंधा मुर्गा बनना और आपस में लड़कर मर जाना। ये दोनों पार्टियाँ समाज में विभेद पैसा करके अपना उल्लू सीधा करना चाहती हैं। क्या आप अपने माँ-बाप का शोषण और दामन करने वाली पार्टियों के लिए मुर्गे की तरह अपनी जान देना चाहते हैं? कृपया लेख की शुरूआत की लाईनों को फिर से पढ़ लें।
यह लेख पहले “निरंज पघरा” में प्रकाशित हुआ है.