पैसों की राजनीति से जंगल, पहाड़ नहीं बच सकते : नियमगिरि की आवाज़

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जंगलों और पहाड़ों के आदिवासी पहले से ही पुलिस छावनी और खनन कंपनियों के ख़िलाफ़ संघर्षरत हैं। वे पहाड़ों पर स्कूल और अस्पताल को ज़रूरी बतलाते हैं। स्कूल जो दूसरी भाषा के साथ उनकी मातृभाषा में भी शिक्षा दे। उनकी ऐसी उम्मीदों के बीच ऐसे समय में जब सुप्रीम कोर्ट देश के 17 राज्यों के जंगलों से आदिवासियों को हटाने का आदेश दे रही है, यह जानना और समझना जरूरी है कि जंगलों और पहाड़ों के बीच रहने वाले लोग जंगलों और पहाड़ों के प्रति क्या महसूस करते हैं।

शाम नदी के किनारे गांव के पुरुष बैठे हैं। बीच में आग जल रही है। चारों ओर ऊंचे पहाड़ हैं। युवा जंगल से नारियल के पेड़ की तरह दिखने वाले पेड़ों से पेय पदार्थ निकाल लाए हैं, जिसे वे शलप कहते हैं। नदी के किनारे सभी एक- एक घूंट शलप पीते हैं। अंधेरा गहराने को है। स्त्रियां अपने डोंगर से गांव लौट रही हैं। शलप पीने के बाद युवा अपने-अपने डोंगर की ओर बढ़ रहे हैं। डोंगर पहाड़ पर खेतों की रखवाली के लिए बना वह झोपड़ा है, जहां गांव के युवा जंगली जानवरों से खेतों को बचाने के लिए रात गुजारते हैं। पूरा गांव रात के आठ बजते- बजते सोने चला जाता है और फिर बहुत भोरे उठ जाता है।
यह ओड़िशा के नियमगिरि के पहाड़ों के बीच बसा लखपदर गांव है। नियमगिरि ओड़िशा के रायगढ़ा व कालाहांडी जिले के बीच पहाड़ियों की एक श्रृंखला है। लखपदर गांव तक पहुंचने के लिए उड़िया भाषा के एक युवा कवि सुब्रोत के साथ हम पहाड़ पर करीब 10 किलोमीटर चले। शाम घिरने से पहले ही हम गांव पहुंच गए। उड़िया भाषा के आदिवासी कवि और सामाजिक कार्यकर्ता हेमन्त दलपति पास के शहर अंबोदला तक हमें छोड़ने आए थे। नियमगिरि आंदोलन का हिस्सा होने के कारण वे नौकरी से सस्पेंड हुए फिर उनके नियमगिरि घुसने पर भी पाबंदी लगा दी गई। इसलिए हमने भी उन पर साथ चलने का दबाव नहीं डाला।
लखपदर गांव. (फोटो : जसिंता केरकेट्टा)
नियमगिरि के जंगल- पहाड़ों पर डोंगरिया कोंद, कोटिया कोंद आदिवासी समुदाय के लोग रहते हैं। इन आदिवासियों ने नियमगिरि में बॉक्साइट खनन के लिए वेदांता, उत्कल एल्युमिना जैसी कंपनियों के प्रवेश के ख़िलाफ़ लंबे समय से संघर्ष किया है। सुप्रीम कोर्ट से खनन पर रोक के आदेश आने के बाद आज लोग नियमगिरि के आस- पास स्थापित पुलिस छावनियों को हटाने की मांग को लेकर संघर्षरत हैं।
लखपदर गांव में लगभग 20 घर है। यहां के सभी लोग डोंगारिया कोंद आदिवासी समुदाय के हैं। कुई भाषा बोलते हैं। लगभग 100 लोगों की आबादी है। पूरा गांव सुबह चार बजते- बजते जग जाता है। स्त्रियां एक दूसरे के घरों से खपरे में अंगोर ले आती हैं और चूल्हे सुलग उठते हैं। पांच बजते – बजते भात और साग की झोर वाली सब्जी तैयार हो जाती है। उजाला होते-होते स्त्रियां टोकरी लेकर डोंगर की ओर चल देती हैं। पहाड़ों पर सबके खेत हैं। हर डोंगर में अलग से चूल्हा है।
कुछ स्त्रियां सुबह जल्दी आकर डोंगर पर ही खाना पकाती हैं। सीढ़ीनुमा खेतों में अरंडी के पौधे बिखरे हुए हैं। डोंगर में कुछ स्त्रियां सूखे अरंडी के बीज निकाल रही हैं। डोंगरिया लड़कियों ने अपने बालों में तेज छुरियां खोंस रखी है। छुरी के मूठ पर झुमके लगे हैं, जो काम करते वक्त बजते रहते हैं। इस छुरी से वे अरंडी के बीज तेज़ी से निकालती हैं। गांव दिनभर खाली पड़ा रहता है। वह अपने डोंगर में ही समय बिताता है। घरों के दरवाजों पर ताला नहीं लटकता। बस, एक लाठी तिरछी कर रख दी जाती है जिसका अर्थ घर पर किसी का न होना है। गांव की लड़कियां हर शाम कुई भाषा में गीत गाती हैं, नाचती हैं। वे नाच रही हैं। उनके गीत अंधेरे में गूंज रहे हैं। उनके नंगे पांव थिरक रहे हैैं। बुजुर्ग स्त्रियां अपने- अपने घर के दरवाजे पर बैठी उन्हें सुन रही हैं। मुस्कुरा रही हैं…।
नियमगिरि के पहाड़ हमारे लिए सबकुछ हैं
“एक ऐसी दुनिया, जहां हर चीज के लिए लोग बाज़ार का मुंह ताकते हैं, जहां लोगों को साफ पानी, साफ हवा नसीब नहीं होती, हम ऐसी किसी दुनिया में नहीं रह सकते। हम उसका हिस्सा भी होना नहीं चाहते। जन्म लेने के साथ ही हमने पहाड़ों को देखा है। यहां हम दिन- रात की परवाह किए बगैर घूमते हैं। हमारी स्त्रियों को भय नहीं होता। पहाड़ हमें हिंसामुक्त जीवन देता है। शहर के लोग पहाड़ों पर हिंसा लेकर आते हैं। यहां नदियां हमारे लिए ठंडक लेकर आती हैं और पहाड़ हमारे लिए छाया। जंगल हमें साग- सब्जियों से लेकर तरह तरह के फल-फूल देता है। हम नदियों के स्रोतों, झरनों, पहाड़ों की पूजा करते हैं। नियम राजा की पूजा करते हैं। हम पहाड़ों के बीच जीते और एक दिन उसकी गोद में ही मर जाते हैं। यदि इन पहाड़ों को बचाने की लड़ाई में मृत्यु भी आ जाए, तो हम नियमगिरि के लिए लड़ते हुए मरना पसंद करेंगे। ” अंधेरे में लोदो सिकोका की आवाज गूंज रही है।
लोदो सिकोका नियमगिरि आंदोलन के प्रमुख नेतृत्वकर्ता हैं। नियमगिरि बचाने के लिए बनाई गई समिति ” नियमगिरि सुरक्षा समिति ” से जुड़े हैं। 2003 से ही नियमगिरि आंदोलन का हिस्सा रहे हैं। प्रतिरोध के दिनों में पुलिस की प्रताड़ना झेल चुके हैं, मगर इससे टूटे नहीं हैं। उनकी आवाज़ में ओज है। वे डोंगरिया आदिवासी समुदाय के हैं और कुई भाषा बोलते हैं। उन्हें उड़िया भी आती है। थोड़ी बहुत हिंदी भी समझते हैं। अपने लंबे बालों को उन्होंने खोपा बना रखा है। अंधेरे में भी उनकी आंखे चमक रही हैं। हम दिसंबर की ठंड में देर रात तक उनसे बातें कर रहे हैं।
नियमगिरि के लोग सरकार को किस तरह देखते हैं?
वे कहते हैं, हमने संघर्ष के दौरान ही सरकार को जाना है। नियमगिरि के पहाड़ों पर सरकार जब चौड़ी सड़के बनाने की तैयारियां कर रही थी, तभी हमें पता चल गया कि दरअसल यह सड़क निर्माण नियमगिरि के आदिवासियों के विकास के लिए नहीं है। यह बॉक्साइट खनन के लिए आने वाली कंपनियों के लिए है। तब, नियमगिरि के लोग जुटे और इसके विरोध में संघर्ष शुरू किया। हमने पहली बार जाना कि सरकार क्या होती है। शायद सरकार भी नहीं जानती होगी कि नियमगिरि सिर्फ पहाड़ और जंगल का नाम नहीं है। यहां आदिवासी भी रहते हैं। अगर वह जानती, तो यहां रहने वाले आदिवासियों से बात करती। संघर्ष के दौरान पहली बार नियमगिरि के जंगलों के भीतर बसे गावों को सोलर लाईट दिया गया है। गांव के वृद्धों को वृद्धा पेंशन, चावल मिल रहा है। कुछ लोग कहते हैं कि जंगल पहाड़ सरकार के हैं, मगर सरकार तो खुद जनता की है। जंगल पहाड़ यहां रहने वाले लोगों का है। हम पहाड़ों पर स्कूल और अस्पताल चाहते हैं। हम यहां कंपनी और पुलिस छावनी नहीं चाहते।
नियमगिरि के लोगों की ताकत क्या है?
नियमगिरि के आदिवासियों के पास पैसा नहीं है। कोई पुलिस बल नहीं है। हमारी शक्ति हमारी एकजुटता में है। हम पैसे लेकर दलाल नहीं बनते। जब पैसा लोगों के भीतर घुसता है, तब उन्हें अंदर से तोड़ता है। आंदोलन के दिनों में कुछ लोग मुझे पैसा देने की कोशिश करते रहे, पर हमने नहीं लिए। जाे पैसों के लिए जो राजनीति करते हैं, उनके भरोसे जंगल पहाड़ नहीं बच सकते, लोदो सिकोका कहते हैं।
सुब्रोत के साथ लोदो सिकोका। (फोटो : जसिंता केरकेट्टा)
क्या आदिवासी विकास विरोधी हैं?
मुंबई के एक सेमिनार में एक बार हमें ले जाया गया। वहां लोग हमसे कह रहे थे कि हम आदिवासी हर चीज का विरोध करते हैं। सरकार हमारा विकास करना चाहती है, मगर हम ही विकास नहीं चाहते। हम सड़कों का विरोध करते हैं। हमने उनसे कहा कि हम स्कूल और अस्पताल का विरोध नहीं करते। हम नियमगिरि में पांच फुट सड़क के निर्माण की खिलाफत कभी नहीं करेंगे। मगर कंपनियों के प्रवेश के लिए पचास फुट सड़क निर्माण का विरोध जरूर करेंगे। क्योंकि तब हमारे घरों से होकर रोजाना हज़ारों गाडियां गुजरेंगी। पुलिस, ठेकेदार, दलाल, बाज़ार सबकुछ साथ घुसेगा। हमारी स्त्रियों के साथ बलात्कार होगा। जब हमारे बच्चे जंगलों में अकेले घूमते हुए दिखेंगे, तो पुलिस उन्हें माओवादी कहकर गोली मारेगी, जैसा आज भी कर रही है। जंगल- पहाड़ के साथ हमारा पूरा जीवन भी तहस- नहस हो जाएगा। इसके बाद भी वे दुहराते रहे कि हम विकास नहीं चाहते। तब हमने कहा, ठीक है एक कागज़ पर लिख कर दीजिए कि सड़क चौड़ीकरण के बाद भी कंपनियां, पुलिस जंगल में नहीं घुसेगी। यह सुनकर सभी मौन रह गए। यह बताते हुए लोदो हंसने लगते हैं।
पहाड़ पर कितना जरूरी है पैसा?
नियमगिरि के पहाड़ों पर पैसा महत्वपूर्ण नहीं है। हम आज भी अनाज के बदले दूसरे सामान ले लेते हैं। अदला-बदली की परंपरा है। पहाड़ के नीचे हाट लगता है। दूसरे लोग वहां कपड़े, साबुन, तेल, नमक, चावल लेकर आते हैं। हम दाल, अरंडी के बीज, संतरे, नींबू और जो भी पहाड़ पर उपलब्ध है, लेकर जाते हैं। जरूरत की चीजें की अदला- बदली कर लेते हैं। जंगल के भीतर पैसे का क्या काम है? बीमारी होने पर हम जंगल में ही जड़ी बूटियों से इलाज करते हैं। प्रसव के समय बच्चे गांव में ही जन्म लेते हैं और ऐसे बहुत कम हैं जिनकी मृत्यु हुई हो। पहली बार जब हम गांव के एक आदमी को लेकर शहर के सरकारी अस्पताल गए थे, तब वहां काफी पैसे भी खर्च किए, लेकिन डॉक्टर ने हम पर ध्यान नहीं दिया। अस्पताल में ही उस आदमी की मौत हो गई। पैसे देने के बावजूद हम उसकी लाश लेकर घर लौटे। यह मौत नहीं हत्या है। गांवों में हम मृत्यु का स्वागत करते हैं। जाने वाले की देह को विदा करते हैं और उनकी आत्मा को घर में वापस लाते हैं। मगर पैसे लेकर किसी की हत्या नहीं करते।
लोग समझते हैं पहाड़ का जीवन कठिन है, गरीबी है। इसे कैसे देखते हैं?
जब हम पहली बार बड़े शहर गए तो वह बड़ा डरावना लगा। शहर के लोग जंगल में बाघ- भालू के नाम से डरते हैं, पर शहर में वे अपनी ही तरह के आदमी से डरते हैं। यह जंगल पहाड़ के जीवन से भी ज्यादा भयावह है। हम जंगलों में यह नहीं जानते कि आदमी से डरना क्या होता है। हमारी बच्चियां जंगलों में अकेली घूमती हैं। लड़के पेड़ों से शलप उतारते हैं। गांव में धांगड़ा, धांगड़ीबासा है, जहां युवा आपस में मिलते- जुलते, बातें करते हैं। पहाड़ों पर नदियां, झरने हैं। फल फूल हैं। तरह तरह के कंद मूल हैं। हमें भोजन, पानी की कमी नहीं है। वहीं, शहरों में लोग पानी बेच रहे हैं। पहाड़ ने हमें वह सबकुछ दिया है, जो सरकार भी शहर में सभी लोगो को समान रूप से दे नहीं पा रही। इसलिए हम खुद को गरीब नहीं मानते। हमारे लिए पहाड़ और जंगल सरकार से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। यहां हम हिंसा रहित जीवन जीते हैं। यहां स्त्रियां सुरक्षित हैं। यहां हमारी भाषा, संस्कृति सुरक्षित है। इसलिए हमारा जीवन भी शहरों में नहीं, यही इन्हीं नियमगिरि के जंगल- पहाड़ों पर सुरक्षित है। पहाड़ों के बचे रहने से ही हम बचेंगे। हमारे लड़ते रहने से ही ये पहाड़ बचेगे, इसलिए हम इन्हें बचाने के लिए पीढ़ी दर पीढ़ी लड़ेंगे।
देर रात तक सुब्रोत और मैं लोदो सिकोका की बातें सुनते रहे। पूरा गांव सो रहा था। ठंड बहुत थी। चांद पहाड़ के ऊपर खड़ा हमारी बातें सुन रहा था। उसके मुस्कुराने पर चांदनी जंगल के ऊपर और फैल सी जाती थी। और दिखता था कि कैसे पहाड़ ने ठंड से बचने के लिए बागुड़ी के सफेद फूलों को शॉल की तरह लपेट रखा है। झिंगुरों की आवाज़ें तेज़ हो रही थी। झरनों की आवाज़ और स्पष्ट सुनाई पड़ रही थी। हमने पहाड़ों को फिर एक साथ देखा। आह! यही है नियमगिरि। अपने अस्तित्व के लिए लड़ता नियमगिरि।

Jacinta Kerketta

Jacinta is a freelancer journalist, poet from Ranchi, Jharkhand. She belongs to Kurukh/Oraon community. Her poem collection titled "Angor" was published in 2016 by Adivaani Publications. Her second poetry collection is "Land of the Roots" published by Bhartiya Jnanpith, New Delhi in 2018. रांची, झारखंड से, जसिंता एक स्वतंत्र पत्रकार और कवि हैं। वह कुरुख / उरांव समुदाय से हैं। "अंगोर" शीर्षक से इनकी कविता संग्रह 2016 में आदिवाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हुई थी। 2018 में प्रकाशित इनकी दूसरी कविता संग्रह "जड़ों की जमीन" है जो भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित की गई है।

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