लिख तो मैं भी सकता हुं साहब, पर जमानत कराएगा कौन?
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असमानता, शोषण की राह लिखुं
या दमनकारियों की वाह लिखुं,
कल्लुरी की जीत लिखुं
या खामोश आदिवासीयों को मृत लिखुं।
नक्सलियों के कुकर्म लिखुं
या महिलाओं का दुष्कर्म लिखुं
लिख तो मैं भी दुं साहब
पर लगी आग बुझाएगा कौन
घर से विस्थापित बैगाओं का हाल लिखुं
या बेदखल करने वाले शोषकों की चाल लिखुं
टाटा, अडानी के लिए शासकों की प्रीत लिखुं
या वीरान जंगलों में गुंजने वाली रेलाओं के गीत लिखुं
फर्जी मुठभेडों में मरे लोगों कि दुर्दशा लिखुं
या जेल में बंद निरापराधियों की दशा लिखुं
लिख तो मैं भी सकता हुं साहब
पर जख्मों पर मरहम लगायेगा कौन
बेघर अपनों कि दास्तां लिखुं
या ठेकेदारों की उपलब्धि
कैंपों में रहने वाले आदिवासीयों को लिखुं
या घुसपैठियों के काले कारनामें लिखुं
“लिख तो मैं भी सकता हुं साहब
पर जमानत कराएगा कौन?
Those who write truth
must be ready to pay the price
for writing truth.