बस्तर : ग्रामीणों ने खुद विकास का बीड़ा उठाया तो प्रशासन ने डाला जेल में!
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बस्तर (छत्तीसगढ़) : बस्तर संभाग के तहत बस्तर जिले का जगदलपुर विकासखंड का गांव कावापाल इन दिनों अखबारों की सुर्खियों में है। कावापाल के सरपंच, माटी पुजारी, सिरहा व 6 स्कूली बच्चों सहित 56 आदिवासी जेल में हैं। ये आदिवासी जेल में इसलिए हैं क्योंकि इन्होंने विकास की जहमत उठाई। जी हां, वही विकास जिसका केंद्र की मोदी सरकार से लेकर राज्य की रमन सरकार ढिंढोरा पीटती रहती है। इन आदिवासियों का जुर्म ये था कि इन्होंने अपने हक़ का इस्तेमाल करते हुए अपना सड़क मार्ग खुद दुरुस्त करने के लिए कुछ पेड़ काटे और यही बात शासन-प्रशासन को नागवार गुजरी।
क्या है पूरा मामला?
आपको बताते हैं पूरा माजरा क्या है। दरअसल 70 सालों में विकास नामक चिड़िया की गांव के इन आदिवासियों ने शक्ल तक नहीं देखी है।न पीने के लिए पानी है, न चलने के लिए सड़क और न ही अंधेरा दूर करती बिजली। पिछले दिनों इन ग्रामीणों ने पारम्परिक ग्राम सभा कर सड़क मार्ग निर्माण करने के लिए 753 पेड़ काटे थे। विदित हो कि अनुसूचित क्षेत्र की पारम्परिक ग्रामसभा को गांव की जल वन निर्माण के प्रबंधन व उपयोग का पूर्ण संवैधानिक बल प्राप्त है। बस्तर संभाग अनुसूचित क्षेत्र के अन्तर्गत आता है जहां संविधान की पांचवी अनुसूची लागू है और ग्राम सभा का प्रस्ताव सर्वमान्य होता है। संविधान का अनुच्छेद 244 (1) व नवीं अनुसूची पंचायत राज अधिनियम 1996 इन्हें यह अधिकार देता है।
पारम्परिक ग्राम सभा का फैसला
प्रशासन द्वारा सड़क निर्माण नहीं करने से निराश होकर कावापाल में पिछले महीने 9 सितंबर को पारम्परिक ग्राम सभा का आयोजन किया गया, जिसमें संविधान के अनुच्छेद 13(3) क 244(1) में निहित विधि के अनुसार सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया गया तथा गांव की जिम्मीदरीन जलनी याया डाँड रावपेन से पारम्परिक अनुमति प्राप्त की गई। सड़क निर्माण की जद में आने वाले पेड़ों को काटकर ग्राम वन सुरक्षा व प्रबंधन समिति कावापाल के द्वारा नीलाम कर इस आय का उपयोग गांव की विकास योजनाओं में करने का भी निर्णय लिया गया।
सड़क न होने से संकट
ग्राम सभा में पारित प्रस्ताव में कहा गया कि ग्राम कावापाल से पुसपाल तक सड़क मार्ग नहीं होने के चलते आवागमन अथवा मूलभूत सुविधाओं के लिए काफी दिक्कत का सामना करना पड़ता है। इस बारे में कई दफा जिला कलेक्टर, जन समस्या निवारण शिविर और जन दर्शन में प्रशासन को अवगत काराया गया लेकिन सड़क निर्माण नही हुआ। अब बच्चों की पढ़ाई, इलाज, बिजली व दैनिक जरूरत के सामान की ढुलाई के लिए सड़क का निर्माण पूरे गांव के लोग श्रम दान करके ही करेंगे।
बिजली भी नहीं
ग्राम सभा में प्रस्ताव पारित किया गया कि जिला कलेक्टर एक माह के अंदर बिजली सेवा भी प्रदान करें। आपको बता दें कि आजादी के 70 साल बाद भी गांव में बिजली नहीं है। प्रशासन को अवगत काराया गया तो सोलर लाइट लगा दी गई जो कुछ दिन चलने के बाद खराब हो गई। बिजली नहीं होने के चलते ग्राम के बच्चे शिक्षा से वंचित हैं। वो पढ़ नहीं पाते जिसके कारण पूरा धुरवा समुदाय विकास से वंचित हो रहा है।
कुछ इस तरह मिलता है मोबाइल नेटवर्क!
प्रस्ताव में यह भी कहा गया कि देश के प्रधानमन्त्री डिजिटल इण्डिया की बात कहते है लेकिन ग्राम में मोबाइल नेटवर्क नहीं है। कावापाल में 310 ग्रामीणों ने हस्ताक्षर और अंगूठा लगा कर ग्राम सभा के प्रस्ताव की प्रशासन को सूचना दी फिर भी कोई सकारात्मक कदम नहीं लिया गया।
कावापाल के ग्रामीण इससे पहले 27 जून 2016 को भी जनदर्शन में आवेदन देकर सड़क निर्माण की गुहार लगा चुके थे लेकिन ग्रामीणों का आवेदन रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया।
ग्रामीणों ने थक हार कर सड़क निर्माण का बीड़ा स्वयं उठाया और पेड़ कटाई कर सड़क निर्माण करने लगे, लेकिन प्रशासन ने सरकारी सम्पति क्षति अथवा वन सुरक्षा अधिनियम के तहत 56 आदिवासी ग्रामीणों को जेल में डाल दिया।
ग्रामीणों के ज़रूरी सवाल
ग्रामीण सवाल उठा रहे हैं कि आज तक वन विभाग ने बस्तर क्षेत्र में लकड़ी तस्करों के खिलाफ गैरज़मानती धाराओं में कोई कार्यवाही क्यों नहीं की? वन विभाग जंगलों से गोला निकालने के लिये बड़े बड़े वृक्षों को काट कर सड़क बनाता है तब क्षति निवारण अधिनियम क्यों नहीं लगाया जाता है? जगदलपुर से कांकेर तक सड़क चौड़ीकरण के नाम पर 10,000 पेड़ काटे गये तब वन विभाग राष्ट्रीय सम्पदा क्षति निवारण अधिनियम के तहत किसके ऊपर कार्रवाई हुई? कौन जेल गया? बस्तर संभाग के तहत कितनी सड़क एक भी वृक्ष बिना काटे बनाई गई है? यदि वृक्ष काट कर सड़क बनाई गई है तो उस सड़क निर्माण करने वाले अधिकारी, ठेकेदार के विरुद्ध भी राष्ट्रीय सम्पदा क्षति निवारण अधिनियम के तहत कार्रवाई क्यों नहीं की गई?
ग्रामीणों के मुताबिक वन विभाग ने नगरनार स्टील प्लांट के लिए शबरी नदी से पानी पाइप लाइन के लिए भी 30 किलोमीटर 10 फीट चौड़ाई में 6000 पेड़ काटने की अनुमति दे दी, जबकि इस पाइप लाइन से आदिवासियों की कोई फायदा होने वाला नहीं है।
कावापाल के आदिवासियों ने कहा कि यह सब अधिनियम हमारे ऊपर ही क्यों और कैसे लागू होते हैं?
सर्व आदिवासी समाज का कमिश्नर को पत्र
सर्व आदिवासी समाज बस्तर ने कमिश्नर बस्तर को पत्र लिख कर इसे पारम्परिक ग्राम सभा कावापाल के प्रस्ताव की तथा संविधान में निहित पांचवी अनुसूची की पैरा 5 की अनिष्ठा व अवहेलना बताया। समाज ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 244(1) अनुसार ग्रामीणों पर वन विभाग की कार्रवाई असंवैधानिक व दोहरा रवैया है। समाज पूरे मामले में संवैधानिक कार्रवाई के पक्ष में है। समाज ने कहा कि नव प्रशिक्षु आई.एफ.एस मनीष कश्यप जिन्हें संविधान की पांचवीं अनुसूची की ज्ञान नहीं है, उन्होंने ही कावापाल के ग्रामीणों को ट्रक भेजकर राजीनामा के लिए बुलाया और फिर जगदलपुर लाकर जेल में ठूस दिया गया। अब समाज ने इस अधिकारी पर संविधान के उल्लंघन में आईपीसी की राजद्रोह की धारा 124क व एट्रोसिटी एक्ट 1989 के तहत मामला दर्ज करने की मांग की है। अगर प्रशासन एफआईआर दर्ज नहीं करेगा तो न्यायालय में याचिका लगाकर संविधान का उल्लंघन करने का मामला दर्ज करवाया जाएगा। सर्व आदिवासी समाज ने असंवैधानिक कार्यवाही को शून्य कर 56 आदिवासियों को तत्काल रिहा करने की मांग की है।
धुरवा समाज के पपू नाग व महादेव नाग ने कहा है कि गांव की विकास की कलई खुल गई है, इसलिए वन विभाग के द्वारा दोहरी कार्रवाई कर संविधान का उल्लंघन किया जा रहा है।
गांव का बुरा हाल
कावापाल ग्राम बस्तर संभाग के जगदलपुर से मात्र 30 किमी की दूरी पर स्थित है। बस्तर की विकास की झूठी तस्वीर यहा साफ़-साफ दिखाई देती है। दर्जनों आदिवासी स्वास्थ्य सेवा न मिलने के चलते मौत के मुंह में समा गए हैं। बारिश के दिनों अथवा रात में किसी ग्रामीण की अगर तबीयत खराब हो जाए तो उसका बचना मुश्किल ही है। यहां बारिश अथवा रात में मोटरसाइकल चलाना आसान नहीं है। दो बार गांव के बीमार लोगों की अस्पताल में मौत हो गई। तब लाश को पहुंचाने गए शव वाहन बीच जंगल में सड़क नहीं होने के कारण लाश उतार कर भाग निकले। दूसरे दिन ग्रामीणों ने लकड़ी की काठी बनाकर लाश को गांव में पहुंचाया।
शिक्षा की बात करें तो एक प्राइमरी अथवा मिडिल स्कूल गांव में मौजूद है लेकिन गुरुजी दर्शन नहीं देते, क्योंकि गांव तक पहुंच मार्ग नहीं है।
आदिवासी प्रकृति प्रेमी होते हैं। उन्हें जंगल, पहाड़ों, झरनों से आत्मीय लगाव होता है। वे पेड़ों को पूजते हैं जंगल की रक्षा करते है। पौधा रोपण का ढोंग नही रचते। वृक्षों के असली मालिक वही हैं। जहां-जहां आदिवासी हैं उन्ही क्षेत्रों में सघन जंगल हैं।
आदिवासी जंगल के संरक्षक हैं, विनाशक नहीं
यह बात साबित करती है कि आदिवासी जंगल के संरक्षक हैं। यदि विनाशक होते तो आज तक आदिवासी इलाकों में जंगल गायब हो गये होते, लेकिन उन्हीं को वृक्षों की कटाई के मामले में असंवैधानिक तरीके से जेल भेज दिया जाए तो यह मौजूदा सरकार और प्रशासन का तानाशाही रवैया और दोहरा मापदंड ही कहा जाएगा।
यह लेख पहले जन चौक, 9 अक्टूबर, 2017 में प्रकाशित हो चुका है.