कैसे बिरसा मुंडा के विद्रोह से जन्मा छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट
- सरनेम में क्या रखा है? उत्तर छतीसगढ़ के आदिवासियों के इतिहास पर चिंतन - March 26, 2019
- ‘Without language, our society and culture won’t exist’ : HO speakers demand inclusion in 8th schedule - December 10, 2018
- What’s in a surname? Reflections on Adivasis’ history of northern Chhattisgarh - October 11, 2018
यह लेख पहले ‘गोंडवाना दर्शन‘, जून 2017 में प्रकाशित हो चुका है.
यदि एक कोई नाम है जिसे भारत के सभी आदिवासी समुदायों ने आदर्श और प्रेरणा के रूप में स्वीकारा है, तो वह हैं “धरती आबा बिरसा मुंडा”. ब्रिटिश राज, जमींदारों, दिकुओं के खिलाफ बिरसा के विद्रोह ने स्वायत्ता और स्वशासन की मांग की. बिरसा मुंडा के संघर्ष के फलस्वरूप ही छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट, 1908 (CNT) इस क्षेत्र में लागू हुआ जो आज तक कायम है. यह एक्ट आदिवासी जमीन को गैर आदिवासी में हस्तांतरित करने में प्रतिबन्ध लगाता है और साथ ही आदिवासियों के मूल अधिकारों की रक्षा करता है. जून 9 को भगवान बिरसा की 117वीं पुण्यतिथि पर यह लेख उनके जीवन इतिहास के बारे में चर्चा करने का प्रयास करेगा.
बिरसा का जन्म 1875 में रांची जिले के उलीहातु नामक स्थान में 15 नवम्बर 1875 को हुआ. बिरसा ‘मुंडा’ समाज से थे, जो कि भारत की सबसे बड़ी जनजातियों में से एक है. बिरसा के पिता सुगना मुंडा कृषक थे और उनका बचपन गरीबी, अभाव में बीता. इस कारण वह अपने चाचा के साथ अयूभाटू गाँव में पले बढ़े. बिरसा ने प्रारंभिक शिक्षा सलगा में स्थित जयपाल नाग द्वारा चलाये जा रहे स्कूल से की. पढ़ाई में तेज होने के कारण जयपाल नाग ने उन्हें जर्मन लुथेरन मिशन स्कूल, चाईबासा में डालने की सिफारिश की. इसी समय उनका ईसाई धर्म में परिवर्तन हुआ और उन्हें ‘बिरसा डेविड’ नाम मिला जो बाद में ‘बिरसा दौद पूर्ती’ के नाम से जाने जाने लगे. कुछ वर्ष पढ़ाई करेने के बाद, उन्होंने जर्मन मिशन स्कूल छोड़ दिया. ईसाई धर्म त्यागने के बाद बिरसा ने सांस्कृतिक लोकाचार बनाये रखने और बोंगा (पुरखा देवताओं) को पूजने पर जोर दिया. लोगों में बढ़ रहे असंतोष ने आदिवासी रीति रिवाजों और प्रथाओं को भी प्रभावित किया, जिसे मूल मानकर बिरसा ने आन्दोलन की शुरुवात की. और इसके लिए एक नए पंथ की शुरुवात की, जिसका मूल उद्देश्य दिकुओं, जमींदारों, और अंग्रेजी शासन को चुनौती देना था. इस पंथ को ‘बिरसाइट’ के नाम से भी जाना जाता है. उन्होंने खुद को देवता/भगवान घोषित किया और लोगों को उनका खोया राज्य लौटाने का आश्वासन दिया. साथ ही यह घोषणा की कि मुंडा राज का शासन शुरू हो गया है.
बिरसा एक प्रभावशाली व्यक्तित्व के थे. हालाँकि उनका अनुसरण छोटा था, वह बहुत संगठित था. साथ ही मुंडा समाज में उनका प्रभाव असाधारण था. स्थानीय अधिकारी बिरसा के अनुयायियों को दण्डित करते थे और उन पर अत्याचार बढ़ने लगा था. इन कारणों से बिरसा के अनुयायीयों ने अंग्रेजों और जमींदारों के खिलाफ हथियार उठाने का निश्चय किया.
बिरसा एक दूरदर्शी थे, जिनका इतिहास आने वाले समय में आज़ादी और स्वायत्ता की कहानी के रूप में जाना जायेगा. ब्रिटिश सरकार के दौरान गैर आदिवासी (दिकु), आदिवासियों की जमीन हड़प रहे थे और आदिवासियों को खुद की जमीन पर बेगारी मजदूर बनने पर मजबूर होना पड रहा था. 1895 के दौरान अकाल की स्थिति में उन्होंने बकाया वन राशि को लेकर अपना पहला आन्दोलन शुरू किया. अपने 25 साल के छोटे जीवन में बिरसा ने न सिर्फ आदिवासी चेतना को जागृत किया बल्कि सभी आदिवासियों को एक छत के नीचे एकजुट करने में काबिल हुए.
मुंडा समाज को ऐसे ही मसीहा का इंतजार था. उनकी महानता और उपलब्धियों के कारण सभी उन्हें “धरती आबा” यानि ‘पृथ्वी के पिता’ के नाम से जानते थे. लोगों का यह भी मानना था कि बिरसा के पास अद्भुत शक्तियां हैं जिनसे वे लोगों की परेशानियों का समाधान कर सकते हैं. अपनी बीमारियों के निवारण के लिए मुंडा, उरांव, खरिया समाज के लोग बिरसा के दर्शन के लिए ‘चलकड़’ आने लगे. पलामू जिले के बरवारी और छेछारी तक आदिवासी बिरसाइट – यानि बिरसा के अनुयायी बन गए. लोक गीतों में लोगों पर बिरसा के गहरे प्रभाव का वर्णन मिलता है और लोग ‘धरती आबा’ के नाम से उनका स्मरण करते हैं.
अंग्रेजो के खिलाफ आन्दोलन
ब्रिटिश काल में सरकार की नीतियों के कारण आदिवासी कृषि व्यवस्था, सामंती व्यवस्था में बदल रही थी. चूंकि आदिवासी कृषि प्रणाली अतिरिक्त या ‘सरप्लस’ उत्पादन करने के काबिल नहीं थी, सरकार ने गैर आदिवासियों को कृषि के लिए आमंत्रित करना शुरू कर दिया. इस प्रकार आदिवासियों की जमीन छीनने लगी. यह गैर आदिवासी वर्ग, लोगों का शोषण कर केवल अपनी संपत्ति बनाए में उत्सुक थे.
मुंडा जनजाति छोटा नागपुर क्षेत्र में आदिकाल से रह रहे थे और वहां के मूल निवासी थे. इसके बावजूद अंग्रेजी सरकार के आने पर आदिवासियों पर अनेक प्रकार के टैक्स लागू किये जाते थे. इस बीच जमीनदार आदिवासियों और ब्रिटिश सरकार के बीच मध्यस्त का काम करने लगे और आदिवासिओं पर शोषण बढ़ने लगा. जैसे ही ब्रिटिश सरकार आदिवासी इलाकों में अपनी पकड़ बनाने लगी, साथ ही हिन्दू धर्म के लोगों का प्रभाव इन क्षेत्रों में बढ़ने लगा. न्याय नहीं मिल पाने के कारण आदिवासियों के पास केवल खुद से संघर्ष करने का रास्ता मिला. बिरसा ने नारा दिया कि “महारानी राज तुंदु जाना ओरो अबुआ राज एते जाना” अर्थात ‘(ब्रिटिश) महारानी का राज खत्म हो और हमारा राज स्थापित हो’. इस तरह बिरसा ने आदिवासी स्वायत्ता, स्वशासन पर बल दिया. आदिवासी समाज भूमिहीन होता जा रहा था और मजदूरी करने पर विवश हो चुका था. इस कारण बिरसा के आन्दोलन ने ब्रिटिश सरकार को आदिवासी हित के लिए कानून लाने पर मजबूर किया और साथ ही आदिवासियों का विश्वास जगाया की ‘दिकुओं’ के खिलाफ वे खुद अपनी लड़ाई लड़ने के काबिल हैं. बिरसा ने लोगों को एकजुट करने के लिए चयनित एवं गुप्त स्थानों में सभा करवाई, प्रार्थनाओं को रचा और अंग्रेजी शासन के अंत के लिए अनुष्ठान कराए.
बिरसा के विद्रोह को रोकने के लिए ब्रिटिश सरकार ने उनकी गिरफ़्तारी के लिए 500 रुपये का इनाम भी घोषित किया. 1900 में जब ब्रिटिश सेना और मुंडा सैनिकों के बीच ‘दुम्बरी पहाड़ियों’ में संघर्ष हुआ जिसमें अनेक आदिवासी सैनिक शहीद हुए. हालाँकि बिरसा वहां से बच निकलने में सफल हुए और सिंघभूम की पहाड़ियों की ओर चले गए. मार्च 3, 1900 को बिरसा जम्कोपाई जंगल, चक्रधरपुर में ठहरे हुए थे जहाँ सोते वक्त उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. इस घटना में 460 अन्य आदिवासीयों को भी गिरफ्तार किया गया, जिसमें एक को मौत की सजा सुनाई गयी और 39 लोगों को आजीवन कारावास मिला. 9 जून 1900 को रांची जेल में बिरसा मुंडा का निधन हो गया। अंग्रेजों के खिलाफ बिरसा का संघर्ष 6 वर्षों से अधिक चला. उनकी मृत्यु के बाद सरकार ने लोगों को आश्रय दिया और छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट पारित हुआ.
आज के समय में बिरसा मुंडा आदिवासी आन्दोलनों के लिए एक प्रेरणा हैं. लेकिन साथ ही मौजूदा साहित्य हमारे सामने कई सवाल भी खड़े करता है. जहाँ एक तरफ भारत सरकार बिरसा को एक ‘स्वतंत्रता सेनानी’ और ‘देशभक्त’ के रूप में मानती है, दूसरी तरफ बिरसा के मूल सिद्धांतों का खुला उल्लघन करती है. जहाँ CNT एक्ट बिरसा और अन्य शहीद आदिवासियों के बलिदान का फल है, आज सरकार उसी कानून पर संशोधन लाने की तैयारी कर रही है. जो की न ही सिर्फ एक आदिवासी विरोधी कदम है बल्कि बिरसा मुंडा के संघर्षों का अपमान भी करता है. आजादी के 70 वर्षों के बाद भी आज अगर आदिवासी समाज को समान नागरिक की तरह नहीं माना जा रहा, तो फिर किस सन्दर्भ में आदिवासी पुरखों ने ‘स्वतंत्रता’ की लड़ाई लड़ी? अगर लड़ी भी तो किसकी स्वतंत्रता के लिए? किस आधार पर आदिवासी पूर्वजों के बलिदान को हम “देश” के प्रति बलिदान मानेंगे? जबकि आज आदिवासी समाज सभी आंकड़ों में उपनिवेशवाद का शिकार है, जहाँ केवल ब्रिटिश सरकार के बदले, देश और राज्यों की सरकार आदिवासियों के दमन की नीतियाँ अपना रही है. ज्ञात है कि बिरसा के संगठनात्मक कौशल ने लोगों को प्रेरित किया और उन्हें जमींदारों, ठेकेदारों के चंगुल से बचाया और साथ ही आदिवासी जमीन पर पूर्ण स्वामित्व की बात रखी. इस प्रकार बिरसा के इतिहास से हमें आज के संघर्ष के लिए अनेकों सीख मिलते हैं. जिस तरह आज आदिवासियों पर अत्याचार बढ़ रहे हैं और उपनिवेशवादी नीतियाँ सरकारी नीतियाँ बन रही हैं, बिरसा का इतिहास और उनके सिद्धांत भविष्य के आदिवासी आन्दोलनों के लिए एक ऐतिहासिक उदाहरण पेश करता रहेगा.
References:
- Samuel Tupud, ‘Birsa Munda and his movement’.
- Satyanarayan Mohapatra, ‘Birsa Munda – The Great Hero of the Tribal’, Orissa Review, August 2004.
wow. great post