सरकार की गलतियों की सज़ा भुगत रहे आदिवासी छात्र
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28 जुलाई, 2016 को कार निकोबार के आदिवासियों ने कुछ ऐसा किया जो उन्होंने पहले कभी नहीं किया था ― वो अंडमान एंड निकोबार आइलेंड्स इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज (ANIIMS) के 8 अनुसूचित जनजाति श्रेणी के छात्रों के निष्कासन के विरोध में एक शांतिपूर्ण धरना प्रदर्शन पर निकले। इन छात्रों को उनकी कक्षाएं शुरू होने के 6 महीने बाद, अचानक अपात्र घोषित कर, संस्थान से बेदखल करने का फैसला सुना दिया गया। यह छात्र इस चिकित्सा संस्थान में अंडमान और निकोबार प्रशासन द्वारा जारी अधिसूचना के तहत दाखिल हुए थे, जिसमें दाखिले के लिए अनुसूचित जनजाति श्रेणी के छात्रों के पात्रता परीक्षा में न्यूनतम अंक 35 प्रतिशत स्पष्ट किये गए हैं। दूसरी ओर केंद्रीय सरकार की एक अधिसूचना में यह आंकड़ा 40 प्रतिशत निर्धारित किया गया है।
भारतीय चिकित्सा परिषद की एक सामान्य जांच के दौरान यह बात सामने आई, और परिषद ने इन सभी छात्रों को निष्कासित किये जाने के आदेश दे दिए। इस आदेश के कुछ ही समय बाद अंडमान और निकोबार में 737 आदिवासी स्कूली बच्चों ने, कार निकोबार और नानकौरी द्वीप जनजातीय परिषद के निर्देश पर, सरकारी संस्थाओं का बहिष्कार शुरू किया। आदिवासी नेताओं का कहना है कि जब तक उन 8 छात्रों को सम्मानपूर्वक वापस दाखिल नहीं किया जाता, यह बहिष्कार जारी रहेगा।
अंडमान निकोबार प्रशासन के लेफ्टिनेंट जनरल को दिए गए एक ज्ञापन में आदिवासी नेताओं ने इस अन्याय की ओर उनका ध्यान खींचा है, और लिखा है कि: “यदि प्रशासन हमारे बच्चों के भविष्य को सुरक्षित नहीं कर सकता, तो उनकी शिक्षा हासिल कर ज़िन्दगी में आगे बढ़ने की कोशिशें बेकार हैं। किताब और कलम पर अपने माता पिता की मेहनत की कमाई बरबाद करने से तो बेहतर होगा कि वो घर पर रहकर खेती बाड़ी में हाथ बटाएँ।”
निकोबार के इस आदिवासी समुदाय का यह बयान और उनका विरोध दिल को देहला देता है। ऐसा कैसे हो जाता है कि लोगों का भला करने के उद्देश्य से बनाए गए कानून उनके ही लिए सज़ा बन जाते हैं? सरकार की गलती के लिए इन 8 आदिवासी छात्रों को सज़ा मिल रही है, यह न केवल आरक्षण के प्रावधान की रूह का उल्लंघन है, बल्कि इंसानियत के खिलाफ भी है। यह न सिर्फ अनैतिक है, बल्कि अन्यायपूर्ण भी है। इस सब के बावजूद यह मामला देश के अन्य इलाकों में अनदेखा किया जा रहा है, न तो इसका कोई प्रसार हुआ है, न ही कोई विरोध, क्योंकि प्रभावित छात्र और नागरिक आदिवासी समाज के हैं।
भारत के आदिवासी आज भी समानता से दूर, दोयम दर्जे के नागरिक क्यों बने हुए हैं, सरकार की यह लापरवाही इसके कारण साफ़ ज़ाहिर करती है। लेकिन इस खबर का देश भर में प्रसार न होने से एक अच्छी बात तो हुई, कि कम से कम हमको आरक्षण विरोधी, ‘योग्यता’ और ‘असक्षम छात्रों’ को लेकर होने वाले भाषणों से बख्श दिया गया। ऐसी बेतुकी बातें वो 8 छात्र, और आरक्षण के संवैधानिक प्रावधान का लाभ पाने वाला कोई भी छात्र सुने, यह उचित नहीं। लेकिन आरक्षण, और आदिवासी समाज पर इसके प्रभावों की चर्चा करने का यह अच्छा समय है।
केवल आदिवासी होने से कोई आरक्षण नहीं पा लेता है। आदिवासी पैदा होने से आपकी सरकारी नौकरी पक्की नहीं हो जाती। आरक्षण पाने के लिए आपको पात्रता की शर्तें पूरी करनी होती हैं ― जिसके कारण आदिवासी समुदाय का एक बड़ा हिस्सा खुदबखुद इससे वंचित हो जाता है। इस तबके को गुणवत्ताहीन शिक्षा प्राप्त होती है, जिसमें अनियमित या न के बराबर कक्षाएं होती हैं, और अपरिचित भाषाओं में अप्रासंगिक विषय पढ़ाये जाते हैं।
शिक्षा की गुणवत्ता के स्तर में शहरी और ग्रामीण इलाकों में इतना गहरा फर्क है कि प्रवेश परीक्षाओं और साक्षात्कारों में, आरक्षण के बावजूद भी सफल हो पाना बहुत मुश्किल है। भिन्न सामाजिक पृष्ठभूमियों के छात्रों के बीच की यह खाई, प्रगति के अवसरों में बड़े अंतर पैदा कर देती है। कोई बिना सुविधाओं और सहयोग के कैसे पात्र बन सकता है? यदि ऐसा हो भी जाए, तो मेहनत कर दाखिल हुए आदिवासियों को संस्थागत भेदभाव अपना शिकार बनाने लग जाता है। गैर-आदिवासी लोग औरों को आदिवासी डॉक्टर के पास न जाने की सलाह देते हैं क्योंकि “वह डॉक्टर केवल आरक्षण के आधार पर बना है, काबिलियत के आधार पर नहीं।” लेकिन इससे बड़ा झूठ कोई नहीं हो सकता। पहली बात तो यह है कि एक “पात्र अनुसूचित जातीय छात्र” होने से आपको कॉलेज में दाखिला तो मिल जाएगा, लेकिन उसके बाद आपको काबिलियत के सहारे ही आगे बढ़ना होता है, और हर परीक्षा उत्तीर्ण करनी होती है। तो आरक्षण इतना करता है कि वह मुख्यधारा के प्रतिकूल और विषमतवादी माहौल में प्रवेश करने का अवसर देता है। क्या आरक्षण मेरे अच्छे प्रदर्शन और सामान्य श्रेणी के छात्रों से ज़्यादा मेहनत करने पर भी मेरे खिलाफ होने वाले भेदभाव को रोक सकता है?
दो साल पहले मीरा एक्का ने अपना पोस्ट ग्रेजुएशन, रेसिडेंसी और सम्बंधित शोध कार्य पूरे कर, ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइन्सेस (AIIMS) के एक खाली पद पर नियुक्ति के लिए आवेदन डाला था, लेकिन उसे और बाकी दो उम्मीदवारों को नियुक्त नहीं किया गया। पद खाली रह गया क्योंकि “उचित उम्मीदवार नहीं मिल सका”। एक वरिष्ठ AIIMS चिकित्सक के अनुसार: “मीरा का कार्य अनुभव और अकादमिक प्रकाशन सामान्य श्रेणी में से चयनित कई उम्मीदवारों जितने ही अच्छे थे। पता नहीं उसे मौका क्यों नहीं दिया गया।”
लेकिन हर आदिवासी को पता है । वह जानता है कि वो कभी खरा नहीं उतर सकता। उसको असफलता के दुश्चक्र में फंसाया गया है। उसको ऐसी शिक्षा दी जाती है जो उसे अनावश्यक बना देती है, और जब कोई इसके बावजूद, बाधाओं को पार कर आगे बढ़ता है, तो उसे रोकने के नए रास्ते इजात कर लिए जाते हैं।
आदिवासियों को दिया जा रहा व्यावसायिक प्रशिक्षण एक सांत्वना मात्र है, और समाज की पक्षपाती मानसिकता को उजागर करता है। शिक्षा के अवसरों की समानता और गुणवत्ता सुनिश्चित न करके एक ऐसी परिस्थिति की नीव रखी जाती है जिसमें अच्छी नौकरियों के लिए ‘पिछड़े वर्ग’ के लोग अनुचित पाये जाते हैं, और इस तरह बाज़ार के लिए एक कामगार वर्ग उत्पन्न हो जाता है, जो पूँजीवाद के पहियों को गतिमय रखता है।
आज निकोबार में हो रहा आदिवासियों का प्रतिरोध अपने समाज के वास्तविक सशक्तिकरण के लिए है, न्याय के लिए है; एक और पीढ़ी को पीछे छूट जाने से रोकने के लिए है। प्रभुत्व के नियम, लक्षण और तंत्र निरंतर अपना ही पुनर्निर्माण न करते रहें, यह सुनिश्चित करने की दिशा में यह एक अहम कदम है।
The article was originally published in English and can be accessed here.
It has been translated into Hindi by Surabhi Agarwal, Research Scholar at University of Hyderbad.
Image courtesy: TheIndianExpress