साहित्य, मातृ-शक्ति और जनजातीय समाज
जन जातिय साहित्य,मानव विकास के साथ-साथ ही विकसित हुई। लोग भले आज अक्षर प्रदान करने कि कोशिश कर रहे हैं। मर्यादित जीवन व्यवहार की श्रृंखलाबद्ध रचना ही साहित्य है। जो भूत-भविष्य को इंगित करते हुए वर्तमान में चलता है। परिवार कुटुम्ब समाज में लोक आदर्श को प्रस्थापित करने का श्रेय मातृ शक्ति को है। यदि मातृ शक्ति नहीं होती तो यह दुनिया भी शायद न होती?
प्रकृति अर्थात मातृ शक्ति-बोलि भाषा संवाद की पहिचान बताने वाली,दुनिया की प्रथम शक्ति है। परिवार की प्रथम गुरु,ज्ञान,चेतना,मान सम्मान की व शिखर तक पहुंचाने वाली शक्ति। प्रथम शब्द, रचनाकार, आवाज की अविष्कारक, गीत संगीत, कला सुर संगम को स्वर देने वाली महिला है। जन जातिय कबिलाई जिन्दगी में परिवार समाज के साथ जीने की कौशलता का आकूत भंडार महिला है। श्रेय और प्रेम में मातृ शक्ति दुनिया के इतिहास में श्रेष्ट ही नही सर्वोत्तम है।
माँ के गोद में अथाह स्नेह वात्सल्यता, बच्चा प्राप्त कर शैशव काल मे कितना खुश रहता है। जिसकी कल्पना नही की जा सकती। जीव जंतु भी अपनी मां के उदर से धरती पर आने के बाद यह अनुभव करते है। कोई भी अपनी मां का अपमान और अशुभ संदेश सुनना नही चाहता?
जन जातीय समूह मे मातृशक्ति, श्रृद्धा, करुणा, दया, ममता की प्रेरणा दयनीय, ऊर्जा की सर्वेच्या शक्ति स्त्रोत है। देशभर मे जगह जगह श्रद्धा उपासना के स्थान अनादि काल से है। उन महिलाओ के दिवंगत जीवन,मानव के लिए गौरवपूर्ण कार्य, श्रेय और प्रेम स्तुल्य है। भक्ति भावना,उनकी पूचा,अर्चना करने जगत शरणागत ही कहा जाता है।
परिवार मे वधु,वंश वेला के विस्तार से संसार में आदर और सम्मान प्राप्त करने वाली पात्र है। कुटुम्ब की मेन पावर, स्विच बोर्ड महिला है।घर की सुख चैन उल्लासित जीवन,आनंद प्राप्त करने सदा संचालित रहती है। मोटियारिन (नेत्री) समाज मे सर्व श्कता सम्पन होती है। कीट पतंगा, मधुमक्खी छत्ते में, रानी मक्खी की सुरक्षा, समृद्धि, संरक्षण, कुटुम्ब परिवार को प्रदान करती है। चींटी भी विपत्ति, खतरे की पूर्व सूचना देकर अपने दल परिवार की रक्षा करती है। वैसे ही जनजातिय महिला की अनोखी भूमिका है।
समाज,कबीला,परिवार के लिए किए गए महान कार्य पंचतत्व मे विलीन होने पर अमर कर देती है। कुल की सेवा से “कुलदेवी” कहलायी। गाँव समाज की परोपकार,आदर्श के कार्य से “खेरमाता”(शीतलामाता) जगत के लिए सेवा भाव से “जंगो माता” (जगत माता) संबोधित हुई। विश्व कल्याण के कार्यो से उस मातृशक्ति को “कलीकंकाली” के नाम से नवाजा गया है। ये दिवंगत महिला पात्र इंसान ही थी। आदर्श कृत्तत्व से आज भी श्रृद्धा और सम्मानित है।
इन मातृशक्तियो की समाधी या ठाना कभी हस्तांतरित नही होती न ही नयी स्थापना की जाती है। जहां पूर्व से स्थापित है देवी स्वरुप अजेय है। सुरक्षित और संरक्षण की दृष्टि से किन्ही भी काल में क्षति न पहुँचे ऐसी कठिन और ऊँचे पर्वत और पहाड़ के दुर्गम भाग मे स्थापित है। भक्ति, भावना कठोर कष्ट, दुर्लभ तपस्या से वहां पहुँचा जा सकता है।
जनजातियों मे मातृ प्रधान व्यवस्था प्रारंभ से थी। लेकिन आर्य संस्कृति का हमला, इसे नष्ट करने पर तुला है। गोंडियन “मातृशक्ति जैसी सुख, शांति का कोई आंगन नही, गौरव समृद्धि की छत जैसा विशाल गगन नही” इस महान नैसर्गिक समाज की बुनियाद टूट रही है, आर्यो की वर्ण व्यवस्था का प्रभाव इतना जबरदस्त हुआ कि महिला तो पूर्व काल में इंसान की श्रेणी में भी नही थी। इस व्यवस्था के हमलों से जन जातीय समाज भी बच नही सका। पुरुष प्रधान समाज मे महिला दासी से कोई भी ऊपर का दर्जा प्राप्त नही कर सकी। उनके राज्य सत्ता मे पुरोहित और राजा के दरबार मे हजारो-हजार की संख्या दासियों की भीड रहती थी। इसी दासी प्रथा का प्रभाव अन्य समाज व्यवस्था पर पडा।
स्वतंत्र भारत के आजादी के पूर्व तक महिला को कोई मौलिक अधिकार का अस्तित्व नही था। विश्व के सभ्य और विकसित कहे जाने वाले देशों में भी यही स्थिति थी, जनजातियो की समाज व्यवस्था एंव राज्य व्यवस्था की देखादेखी गणतंत्रात्मक रचना, करने अपने विधान मे संशोधन किये। इसके बाद 19वीं शदी से महिला दूयम (दूसरी) श्रेणी की इंसान गिनी जाने लगी,मत देने का अधिकार मिला।
प्राकृतिक समाज व्यवस्था मे परिवार कुटुम्ब समाज महिला ही आधार स्तंभ है। धार्मिक, सांस्कृतिक,आर्थिक और राजनैतिक सर्वभौम था। समानता,समता,सेना और देश की सुरक्षा का भार सबका था। परिवार और समाज की अर्थव्यवस्था मे सबकी बराबरी की हिस्सेदार-बिना श्रम ही अर्थव्यवस्था बेइन्साफी थी। आज भी महिला पुरुष को समान श्रममूल्य के सिद्धांत पर जीवित है। दुर्भाग्य है कि देश की कानून व्यवस्था में अभी तक यह समानता पूर्ण रूप से लागू नहीं हो पायी है।
प्राचीनकाल और मध्यकाल में तो सेना की बागडोर संभालने वाली जनजातीय महिलाये थी। महिलाये तो कई छोटे बड़े राज्यो का कुशलता और बुद्धिमता से शासन प्रशासन करने का गौरव प्राप्त किया। प्रथम महिला सेनापति-सुरपनखा, ताड़का, त्रिजटा इसके अतिरिक्त राजा चंद्र चूड़ा कि रानी वृन्दा और राजा जलन्धर की रानी तुलसी थी। सुमति राजा संग्रामशाह की रानी, रानी तिलका(लांजी), रानी देवकुवंर (हरियागढ़), गढ़ा मंडला की रानी दुर्गावती, रानी फूलकुवंर, रानी नंगला, रानी सत्यवती, रानी हिरातनी(चांदागढ़), रानी कमालहीरो (रय्यासिंघोला), रानी हिरई, रानी चमेली (बस्तर चक्रकोट), समक्का-सारक्का (वारंगल), उत्कल राजकुमारी (भवानी पटना), झलकारीबाई (झांसी), सिनगी दायी (बिहार), रानी गाईडिल नागा आदि, ये तो चर्चित और ख्याति प्राप्त महिलायें है। किन्तु, गुमनाम सैकडो महिलाओं ने समाज देश के लिए अपनी आहूती दी, समूह का नेतृत्व ही नही आंदोलन भी खड़ा किया, अनेक युद्ध जीते दुश्मन के दांत खट्टे किये।
साहित्य संस्कृति-गीत संगीत क्रीड़ा और शासन प्रशासन की प्रतिमा का इतिहास दस्तावेजों में उपेक्षित है। गैर लोगो का इतिहास मे तो वीर योद्धा जन जातीय पुरुषो के गौरवगाथा की उपेक्षित है,तो उनकी पुरुष मानसिकता भला जनजातिय महिलाओं की यशकीर्ती को कहां अक्षर देंगे?
उदाहरण है- हिन्दी साहित्य की प्रसिद्ध,चोटी की कवित्रि सुभद्रा कुमारी चौहान। वह इलाहाबाद में जबलपुर, लक्ष्मण सिंह चौहान को विवाह होकर आयीं। कविमन-चोटी की साहित्यकार अपने परिवेश तथा अंचलों के शब्द रचना भूत भविष्य का चिंतन होता है। “बस देवा” एक पंथ है। जो सुबह चार बजे भीख मांगने घर-घर गीत गाते चटकुला बजाते नाच का अभिनय कर-हर गंगे-हर गंगे-हर बोला कहते है। उनके राग अलापने से लोग नींद से उठते थे। दिन को आकर अपनी भिक्षा ले जाते हैं उन्हे “हर बोला” की उपमा दी गयी है।
सुभद्रा कुमारी चौहान के घर “रानी झांसी के गौरव गाथा” को वे सुनाये। इसे सुनकर कवित्री ने रानी झांसी की कीर्ती अपनी कविता अतिशयोक्ति से प्रदर्शित की गयी। 20 वर्षीय लक्ष्मी बाई ब्राम्हण को 60 वर्षीय वृद्ध राजा ने झांसी के उत्तराधिकारी देने के लिए विवाह किया था। नि:संतान दिवंगत होने पर रानी लक्ष्मीबाई ने अपने रिश्तेदार के पुत्र को दत्तक लिया था। अंग्रेज सरकार ने राजा के नस्लीय खून न होने से दत्तक उत्तराधिकार रानी का खारिज कर दिया था,रानी को पेंशन बंद होने से अपने रिश्तेदार,बनारस,पूना,कानपुर संपर्क कर दत्तक उत्तराधिकार के लिए प्रश्न उठाने चली तो लोंगो की सहानुभूति तैयार हो गयी। जनजातिय महिला झलकारी बाई भोजला गांव की थी। वह बहादुर तो थी ही उनके पिता और माँ फौज के ओहदे पर थे। वह लक्ष्मीबाई की कद काठी की थी और शक्ल भी मिलती जुलती थी। रानी के वेष भूषा में घोड़े पर सवार हो युद्धभूमी मे सेना का नेतृत्व किया और शहीद हो गयी।
कवित्री चौहान ने रानी झांसी के गौरवगाथा को अपनी लेखनी मे गौरवान्वित किया। घटना ई.1857 उनके जीवनकाल के अस्सी वर्ष पूर्व की थी। कविता 1937ई. मे लिखी गयी। जिस घटना को देखा भी नही, झांसी का भौगोलिक अवलोकन भी नही? बुन्देले हर बोला के मुख से सुनी कहानी थी “खूब लड़ी वह तो झांसी वाली रानी थी” हकीकत मे रानी किले मे अंग्रेज पलटन से घिर गयी थी। गुप्त मार्ग से दत्तक पुत्र को लेकर विश्वस्त लोगो के साथ नेपाल चली गयी थी। 83 वर्ष की आयु मे वहां मृत्यु हुई। रानी लक्ष्मीबाई वीरता,साहस और पुरुषार्थ की अधिकारी नही थी। पूना के कुलीन ब्राम्हण पुरोहित के यहां बनारस में पैदा हुई थी। ऐशे कुल में पैदा लेने वाले जो “चूहा” तक को डरती है, भेड़बकरी कटते तो देख नहीं सकती-वह क्या तलवार उठाना तो दूर की बात है।
साहित्यकार ने अपनी लेखनी कोवधारदार बनाकर रानी झांसी का ढोल तो देश भर मे फूंका? चूंकि वह आर्य कुल की थी? जबलपुर मे वह आयी तो स्थानीय परिवेश का भी तो अध्ययन किया ही होगा? मदनमहल रेल्वे स्टेशन,रानीताल,आधारताल, संग्राम सागर गढ़ा का राजमहल, पहाड़ पर मदन शाह का तिमंजिला भव्य महल दूर से दिखता है यह अनोखी चीज है-पत्थर पर बिना नींव के खड़ा है जबलपुर मे गोंडवाना कालीन सैंकड़ों स्मृति चिन्ह। गढ़ा कटंगा ताल तलैया का नगर, भारत के तांत्रिकें का मुख्य केन्द्र बाजना मठ। गोंडवाना की कुल देवी हिंग्लाज माता, माला देवी, राज राजेश्वरी देवी का खेरमायी का देवालय। जहाज महल संग्राम सागर ऐसे अनेको गोंडवाना साम्राज्य के भग्नावेश अवशेष,1700 साल का इतिहास बोलता है। संग्राम शाह के वंशज की कुलवधु 52 किलो 57 परगनों की शासिका 16 वर्षो तक कुशलता से साम्राज्य की बागडोर सम्हालने वाली महारानी दुर्गावती। उस महान वीरांगना ने एशिया के मुगल सम्राट अकबर बादशाह को तीन-तीन बार युद्ध क्षेत्र मे परास्त कर खदेड़ दिया था। चौथी बार बदन सिंह और गिरधारी सिंह सजातीय चन्देलों के गद्दारी और विश्वासघात के कारण परास्त और शहीद हो गयी। उसकी सेना में बराबर स्त्री पुरुष सैनिक थे। हाथी घोड़े बैलगाड़ी सरवन जैसे हाथियों से राजा रानी की सवारी थी। ई. सन् 1564 में नरई नाला मे शहीद हो गयी। तीन सौ तिरसठ साल पूर्व की युद्ध घटना, रानी दुर्गावती विश्व की प्रथम महारानी मुगलो से चार चार बार युद्धभूमी मे दुश्मन से भिड़ गयी। ऐसी वीरांगना के बारे मे कवि के द्वारा अनदेखा करना साहित्य के साथ अन्याय है। उनके बारे मे अपनी साहित्य मे एक शब्द भी न लिखना घोर उपेक्षा और तिरस्कार है। पुरुष मानसिकता की शिकार भावना प्रधान नारी भी-नारी का अपमान करने से नही चूकती।
वीरांगना रानी दुर्गावती गोंडवाना राजवंश की शासिका थी। जन जातीय समाज आर्य वर्ण व्यवस्था मे नही आते। ये आर्यो से परास्त और उनके दृष्टि से उपेक्षित और तिरस्कृत है। पराजित लोगो की गौरवगाथा को कैसे उठायेंगे? महिला-पर-महिला कैसे अपमान अत्याचार अन्याय करती है। ये आर्यो के दस्तावेज बोलते है।
साहित्यकार वर्ग, समाज देश की परिस्थिति को दृष्टिगत करते हुए निश्पक्ष निर्भीक स्वच्छ हृदय का होना चाहिए। हंस की तरह तथ्यों को सामने रख दे। विवेकशील चुनकर मोती निकालेगा। लोक साहित्य में और जन जातीय समाज मे असंख्य बिखरे मोतियां है। इन्हे एक माला में गूंथा जाए। वह महान आदर्श,महान संस्कार किसी को न दुख देता न संताप। सौर्यमंडल के ग्रह नक्षत्र की भांति किसी को न नुकसान करेगा। अपने आप मे चुम्बकीय गुरुत्वाकर्षण मे केन्द्रित होगा।
महिला परिवार की मुख्य पात्र है। जीवन की गाडी समान पहिया पर ही चलेगी। महिला मे वह गुण कुदरत ने दिया है। गरम को ठंडा करना, ठंडा को गरम करना। समानता समभाव आदर्श की प्ररणादायी है।
वर्तमान देश दुनिया मे आर्य संस्कार का प्रभाव से ग्रसित नारी दुयम श्रेणी को प्राप्त की है। पुरातनकाल से शोषित नारी का अहं जाग रहा है। वह सदियों तक पैरौं से रौंदी गयी कुचली गयी दासी बनकर ही अपना कल्याण समझी। सिर का ताज बनने का अवसर ही नही मिला। वह नारी भी पुरुष प्रधान समाज के संस्कारों से लैंस है। उनमे रत्ती भर भी परिवर्तन की भावना नही है। समाज की महिलायें बकरी भेड़ दासी की कु संस्कार का लबादा को फेंक दें। शेरनी की भाँति जीवन को बनायें। सूरज और चाँद की भाँति समाज भाव रख जीवन की सुन्दर यात्रा मे चलते रहें। यात्रा मंगलमय हो जायेगा।
साहित्यकार का दायित्व बनता है समाज की नारियो का स्वतंत्रता समानता और श्रेष्ठता की स्थान मे प्रस्थापित करे। आर्य नारियो की उच्छृंखलता की नकल न करें। जो इन मानसिकता की राही होती है परिणाम भी भोगती है। जनजातीय समाज व्यवस्था निर्मल जल की तरह स्वच्छ और स्वादिष्ट है। अच्छा बुरा का दिग्दर्शन कराती है। जैसा बोया वैसा काटा जाता है। यह समाज न पिछड़ी है न अंध विश्वासों मे जीता है। ये उपदेश तो आर्यो के फैलाये विशैली घृणा के अंश है। जिससे उनकी गुलाम गिरी सत्ता जीवित रहे। हमे अपनी शुद्ध सौंदर्य आदर्श को अपने हाथों से न कुचलें। आँख कान से परिस्थितियों को पहचाने। हीरा की खोज में ओस की बिंदू न पकड़े।
साभार- गोंडवाना दर्शन (दिसम्बर 2002, जनवरी-मार्च 2003)
Very good article , i look forward to read more from Ushaji 🙂